SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८२] [ तित्थोगाली पइन्नय (अथ दुषमायां तस्यां, व्यतिक्रान्तायां चरम समये । वर्षिष्यति सप्त रात्रिषु, महत् निरन्तरं वर्षम् ।) उस दुष्षम प्रारक की समाप्ति की अन्तिम वेला में सात रात (रात दिन) निरन्तर घोर वर्षा बरसेगी ।९३२। तेण हरिया य रुक्खा, तण गुम्मलया वणप्फतीओ य । अग्गिस्स य किर जोणी, तमहोरत्तं पडिस्सिहिति' ।९३३। (तेन हरिताश्च वृक्षाः, तृणगुल्मलता वनस्पतयश्च ।। अग्नेश्च किल योनिः, तस्मिन् अहोरात्र प्रतिसेत्स्यति ।) उस घोर वर्षा से हरे वृक्ष, तृण, गुल्म, लता, वनस्पति और अग्नि की योनि उसो अहोरात्र (एक दिन तथा एक रात) में नष्ट हो जायेगी।६३३। एते सणियं सणियं, सव्वे विय पव्वेया न होहिंति । वेयड्ढो रयणड्ढो, नवरं किच्छाए दीसिहिति ।९३४। (एते शनैः शनैः, सर्वेऽपि च पर्वता न भविष्यन्ति । वैताढ्यः रत्नाढ्यः नवरं कृच्छया द्रक्ष्यन्ति ।) । ये सब पर्वत भी धीरे-धीरे नहीं रहेंगे। रत्नभण्डार वैताढ्य पर्वत भी बड़ा छोटा दिखाई देगा।६३४। चंदा मुच्चिहिंति हिमं, अहियं य सूरिया तविहिंति । जेण इहं नर तिरिया, सीउण्हहया किलिस्संति ।९३५॥ (चन्द्राः मुचिष्यन्ति हिमं, अधिकं च सूर्याः तप्स्यन्ति । येन इह नरतिर्यञ्चा, शीतोष्णहताः क्लिशिष्यन्ति ।) चन्द्र हिमवर्षा करेंगे और सूर्य बड़ी तीव्रता से तपेंगे जिससे कि इन दश क्षेत्रों के मनुष्य एवं तिर्यञ्च शीत और घाम के मारे असह्य कष्ट पायेंगे ।६३५॥ १ निर्वृत्तिमवाप्स्यति-लुप्ला भविष्तीयर्थः ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy