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तित्थोगाली पइन्नय ]
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इकवीस हजार वर्ष पश्चात् इस दुष्षम नामक पंचम आरक के समाप्त होते ही जिनेन्द्र प्रभु के कथनानुसार (भरतादि १० क्षेत्रों में) लोक धर्म और अग्नि का विच्छेद हो जायेगा ।६२८। होही हाहाभूतो, दुक्खभूतो य पावभूतो य । काले इमाइ पत्ते, गोधम्मसमो जणो पच्छा ।९२९। (भविष्यति हाहाभूतः, दुःखभूतश्च पापभूतश्च । काले एतस्मिन् प्राप्ते, गोधर्मसमः जनो पश्चात् ।) ___ दुःषम-दुःषम नामक आरक के आने पर भरत, ऐरवत आदि दश क्षेत्रों में सर्वत्र हाहाकार, दारुण दुःख और घोर पाप का साम्राज्य हो जायेगा । तदनन्तर मानव पशुतुल्य हो जायेंगे । ६२६। खरफरुसे धूलि पउरा, अणिद्धफासा समंततो वाया । वाहित्ति भयकरा वि य, दुविसहा सव्वजीवाणं ।९३०। (खर-परुष-धूलि प्रचुरा, अनिद्ध स्पर्शाः समन्ततः वाताः । वाहिष्यन्ति भयंकरा अपि च, दुर्विषहाः सर्वजीवानाम् ।)
उस छ8 आरक में चारों ओर सर्वत्र प्राणिमात्र के लिये असह्य, तीखो. कठोर, प्रचुर धूलि भरी और दुःखद स्पर्श वाली प्रांधियां चलेगी ।६३० धूमायंति दिसाओ, रओसिला पंक रेणु बहुला उ । भीमा भय जणणीओ, समंततो अंतकालम्मि ।९३१। धूम्रायन्ते दिशाः, रजो-शिला-पंक-रेणुबहुलास्तु । भीमाः भयजनन्यः, समन्तात् अन्तकाले ।)
रज, शिला, कीचड़ और रेणु बजरी कण-मय धूलि से भरी दशों दिशाएं पंचम आरक के अन्त में सब ओर घने धूम से धूमायमान (काली) प्रतीत होंगी।६३१॥ अह दूसमाए तीसे, वितिकताए चरम समयम्मि । वासीहि सव्व [सत्त] रनिंसु महंत निरंतरं वासं ।९३२।