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________________ तित्थोगाली पइन्नय ] [१७ (तप संयम नियमेन तु मुच्यते सर्वस्माच्चैवदुःखात् । अमरवरेषु च प्राप्नोति विशिष्टतरकं विषयसौख्यं ।) तप एवं संयम से तो मानव सब प्रकार के दुःखों से (सदा सर्वदा के लिये) मुक्त हो जाता है अथवा श्रेष्ठ देवतामों में विशिष्टतर विषय-सुख को प्राप्त करता है ।५३। सुसमा मुसमाए एसा, समासो वंनिया मण साणं । उवभोगविहि समत्ता, सुसमा एत्तो परं वोच्छं ।५४। (सुषमा सुषमाया एषा, समासतः वर्णिता मनुष्याणाम् । उपभोगविधिः समाप्ता, सुषमां इतः परं वक्ष्यामि ।) सुषम-सुषमा नामक प्रारक में मनुष्यों की उपभोग विधि का संक्षेपतः वर्णन समाप्त हुआ। अब उनका सुषमा नामक आरक के समय की भोगविवि का वर्णन करूंगा ।५४। हरिवरिसाई खेत्ता, दस भरहादी य तचिया चैव । आसे समासुसमाए, बीए अरगंमि निद्दिट्ठा ।५। (हरिवर्षादि क्षेत्राः दश भरतादि च तावत्काश्चैव । आसन समा-सुषमायां, द्वितीये आरके निर्दिष्टाः ।) हरिवर्ष आदि दश तथा उतने ही भरत आदि क्षेत्रों की सषमा नामक काल में जो स्थिति थी वह द्वितीय आरक में निर्दिष्ट की गई है। अणिगणदीवसिहाविय, तुडि यंगा मिंग तह य कोवीणा । उरुसहयामोयपमोया, चिचरसा पच्छरुक्खा य ।५६। [अनग्नदीप-शिखापि च, त्रुटितांगाः भृगास्तथा च कोपीनाः । उरुसहजा आमोद प्रमोदाः, चित्ररसाः पक्षवृक्षाश्च । अनग्ना, दीपशिला, त्रुटितांगा, भिंगा, कोपीन, उरुसहजा, आमोदा, प्रमोदा, चित्ररसा और पक्षा नामक कल्पवृक्ष द्वितीय प्रारक के यौगलिकों को भोगोपभोग की सामग्री उपलब्ध कराते हैं ।५६।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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