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[तित्थोगाली पइन्नय
___ मण्यंग नामक कल्पद्र मों से सभी प्रकार के श्रेष्ठ आभूषण,गेहाकाय नामक कल्पवृक्षों से प्रासाद, और अनग्न नामक कल्पतरुयों से भांति भांति के परिधान-वस्त्र उपलब्ध होत हैं ।४६। एतेसु य अन्नेसु य नर-नारि-गणाण ताण उवभोगो । देव-कुराइसु नियओ, भरहाइ (सु) असासओ होइ ।५०। (एतेषु च अन्येषु च, नरनारिगणानां तेषामुपभोगः । देवकुर्वादिषु नियतः, भरतादिषु अशाश्वतः भवति ।)
इन कल्पवृक्षों तथा अन्यान्य कल्पवृक्षों से उन नर-नारी समूहों का उपभोग देवकूरु आदि दश क्षेत्रों में सदासर्वदा नियत और ५ भरत ५ . ऐरवत इन दश क्षेत्रों में अशाश्वत अर्थात् अस्थायी होता है ।५०। ते किंचिवि सावसेसंमि आउए, मिहुणगाई पसविता । कालगया य सुहेण, अइराय सुरालयमुर्वेति ।५१।। (ते किंचिदपि सावशेषे आयुषि मिथुनकानि प्रसवित्वा । . कालगताश्च सुखेन, अचिरात् सुरालयमुपयान्ति ।)
स्वल्प आय शेष रहने पर वे यौगलिक मानव एक एक मिथुन (एक बालक एक बालिका) को जन्म देकर सुखपूर्वक मृत्यु पा सीधे स्वर्ग में जाते हैं ।५१॥ मउया सपारनिरया, उज्जुसहावा अकोहणा अलुद्धा । तवसंजमेण विणा, लहंति एयाई ठाणाई ।५२। (मृद्वः स्वदारनिरताः ऋजुस्वभावा अक्रोधनाः अलुब्धाः तप-संयमेन विना, लभंते एतानि स्थानानि ।) __ वे लोग प्रकृति से मृदु, स्वदारसंतोषी, सरल, स्वभावी, क्रोध, लोभ तथा तप-संयम रहित इस प्रकार के स्थानों को प्राप्त करते हैं । ५२ । एवं तवसंजमनियमेण उ, मुच्चइ सव्वस्स चेव दुक्खस्स । अमरवरेसु य पावह विसिट्ठतरयं विसयसोक्खं ॥५३॥