________________
तित्थोगाली पइन्नय ]
| २७६
चूर्णों, अंजनों, पांवों में किये जाने वाले लेपों को प्रौषधियों, अन्तर्धान, वशीकरण खङ्ग ( ? ) गोरोचन आदि की हानि होगी । २१ ।
ताण य परिहाणी, पसिणावच्छलमणो जोगाणं । कलहभक्खाणाणं, बुड्ढी एवं जिणा वेंति । ९२२ । ( मन्त्राणां च परिहानिः, प्रश्नावत्सलमनो (१) योगानाम् | कलहाभ्याख्यानानां वृद्धि एवं जिनाः वदन्ति )
,
मन्त्रों एवं वन्सल (प्रिय) मनोयोगों सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देने की विद्या का ह्रास होगा । कलह और अभ्याख्यानों (परस्पर एक दूसरे को बुरा बताने) की वृद्धि होगी, ऐसा सर्वज्ञ जिनेश्वर कहते हैं २२
कलहकरा डमरकरा, असमाहिकरा अनिव्वुझ्करा य । होहिंति एत्थ समणा, नवसुवि खेत्ते एमेव । ९२३ । ( कलहकराः डमरकरा, असमाधिकरा अनिवृतिकराश्च । भविष्यन्ति अत्र श्रमणाः, नवस्वपि क्षेत्रेषु एवमेव )
इस भरत क्षेत्र की तरह शेष 8 क्षेत्रों में भी उस समय के श्रमण कलह, विप्लव अशान्ति एवं प्रारम्भ समारम्भ करने वाले होंगे २३
दूसमकाले होही, एवं एयं जिणा परिकहंति । एगंत दुस्समाए, पाव तरगं अतो बिंति । ९२४ । (दुःषमाकाले भविष्यति एवं एतद् जिनाः परिकथयन्ति । एकान्त दुःषमायां, पापतरकं अतः ब्रुवन्ति ।)
दुष्षम नामक पंचम प्रारक में ये सब बातें होंगी ऐसा जिनेश्वर कहते हैं । इसके पश्चात् एकान्त दुष्षम अर्थात् दुष्ष दुष्षमा नामक ( अवसर्पिणी के षष्ठम तथा उत्सर्पिणी के प्रथम ) आारक में जिनेश्वर ने पाप की पराकाष्ठा बताई है । ६२४|