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तित्थोगाली पइन्नय ]
.. [३५९ (परपरिवादरतानां, कुलगणसंघस्य निर्वृतिरतानाम् । . चारित्रदुर्बलानां, मा खलु कथयेत् जीवानाम् ।)
दसरों की निन्दा में निरत, कुल, गण और संघ से सदा दूर रहने वाले और चरित्र-पालन में दुर्बल जीवों को, कभी कथन न करे ।११६३। बज्जाणं व जवाणं निग्घिणाण य निविसेसाणं । संसारसूयराणं, कहियंपि निरत्थ यं होइ ।११९४। (वज्रजडेभ्यः, निघणेभ्यश्च निर्विशेषेभ्यः। . संसारसूकरेभ्यः, कथितमपि निरर्थकं भवति ।)
बज्रजड़ों (नितान्त मूों), निर्लज्जों, निर्गुणों ओर संसार के कीचड़ में सूअर की तरह मग्न लोगों को तीर्थं प्रोगालो का कथन किया भी जाय तो वह सर्वथा निरर्थक ही होता है । ११६४। एयस्सि पडिवक्खा, जे जीवा पयइ भद्दग विणीया । पगईई मउयचित्ता, तेसिं तु पुणो कहेज्जा हि ।११९५। (एतेषां प्रतिपक्षाः, ये जीवाः प्रकृतिभद्रक विनीताः । प्रकृत्या मृदुचित्ताः, तेभ्यस्तु पुनः कथयेत् हि ।) ।
उपरि चचित लोगों के प्रतिपक्षी जो जीव भद्र प्रकृति के, विनीत और स्वभाव से ही कोमल चित्त बलि हैं, उन लोगों को तीर्थप्रोगाली का कथन करना चाहिये ।११६५।। सोऊण महत्थमिणं, निस्संद मोक्खमग्गसुचस्स । यचो मिच्छत्त परंमुहा, होहलद्धृण य सम्मत्त ।११९६। (श्रु त्वा महाथमेतं निस्यन्दं मोक्षमार्ग-सूत्रस्य । यस्मात् मिथ्यात्व-पराङ्मुखाः, भवन्तु लब्ध्वा च सम्यक्त्वम् ।) __मोक्षमार्ग सूत्र की पहिचान कराने वाले इस महान अर्थ भरे तीर्थ-प्रोगालो २ त की सुनकर इसके प्रभाव द्वारा मिथ्यात्व से पराङमुख होकर एवं सम्यक्त्व को प्राप्त कर ।११६६।