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तित्थोगाली पइन्नय ]
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(वक्ष्यन्ति च महत्तरका, अनागताः ये च सम्प्रति काले । गारविक स्थूलभद्र', नाम नष्टानि पूर्वाणि ।)
भविष्यत् काल और वर्तमान काल के महत्तर (प्राचार्य आदि) यही कहेंगे गर्वीले स्थूलभद्र में (चार) पूर्व नष्ट हुए ।७७३। अह विण्णविति साहू, सगच्छया करिय अंजलिं सीसे । भदस्स ता पसीयह, इमस्स एक्कावराहस्स [७७४। (अथ विज्ञपयन्ति साधवः, स्वगच्छकाः कृत्वा अंजलिं शीर्षे । भद्रस्य तावत् प्रसीद, अस्य एकापराधस्य ।)
उस गच्छ के साधु साञ्जलि शीश झुका कर भद्रबाह से प्रार्थना करते हैं-'स्थूलभद्र के एक मात्र इस अपराध को क्षमा कर उस पर आप प्रसन्न हों।७७४। रागेण व दोसेण व, जं च पमाएण किंचि अवरद्ध । तं भेस उत्तरगुणं, अवुणकारं खमावेति ।७७५। (रागेण वा दोषेण वा, यच्च प्रमादेन किंचिदपराद्धम् । तत् भवतां स उत्तरगुणं, अपुनःकारं क्षमापयति ।)
रागवश, दोषवश अथवा प्रमादवश हो स्थूलभद्र ने जो भी अपराध किया है, श्रमणत्व के उत्तरगुण के उस अपराध की-फिर कभी इस प्रकार का अपराध नहीं करेगा- इस प्रतिज्ञा के साथ क्षमा मांगता है ।७७५॥ अह सुरकरिकर उवमाणबाहुणा भद्दबाहुणा भणियं । मा गच्छह निव्वेतं, कारणमेगं निसामेह ।७७६। अथ सुरकरि-करोपमान-बाहुना भद्रबाहुना भाणितम् । मा गच्छत निर्वेदं , कारणमेकं निशामयत ।)
__ अपने गच्छ के साधुनों की प्रार्थना सुन कर एरावत की सूड के समान बाहु युगल वाले भद्रबाहु ने कहा--"आप लोग दुःखित न हों। आगे के पूर्वो की वाचना न देने के पीछे एक कारण है, उसे आप सुनिये ।७७६।