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________________ २३६ '] [ तित्थोगालो पइन्नय स्थूलभद्र को वाचना लेने हेतु उपस्थित देख भद्रबाहु ने कहा"अणगार ! तुम्हारे लिये इतना पूर्वज्ञान ही पर्याप्त है। अब इन्हीं का परावर्तन करते हुए और स्पष्टतः इन्हें हृदयंगम करते रहो"।७६६। अह भणइ थूलभद्दो, पच्छायावेण ताविय सरीरो । इड्ढीगारवयाए, सुयविसयं जेण अवरद्ध ७७०। (अथ भणति स्थूलभद्रः, पश्चाचापेन तापित शरीरः । ऋद्धिगारवतया, श्रुतविषयं येन अपराद्ध ।) ___ऋद्धि के गर्व के वशीभूत हो जिन्होंने श्रुत विषयक अपराध किया था, उन स्थूल भद्र का शरीर (तन-मन) पश्चात्ताप की अग्नि में जलने लगा। उन्होंने भद्रबाहु की सेवा में निवेदन किया--७७०। न वि ताव मज्झ मणु, जह मे ण समाणियाई पुव्वाई। . अप्पा हु मए अवराहितो ति, पलियं खु मे मणु ७७१। (नापि तावत् मह्यं मन्युः, यथा मया न समानितानि पूर्वाणि । आत्मा खलु मया अपराद्ध इति, पलितं खलु मे मन्युः ।) ___ मुझे इस बात का उतना दुःख नहीं है कि मैंने सम्पूर्ण पूर्वो का ज्ञान प्राप्त नहीं कि किन्तु मुझे इस बात का घोर दुःख है कि मैंने अपनी आत्मा के साथ अपराध किया है ७७१। . एतेहिं नासियव्वं, मए विणा विजह सासणे भणियं । जं पुण मे अवरद्धं, एयं पुण डहति सव्वंगं ।७७२। (एतैः नाशितव्यं, मया विनापि, यथा शासने भणितम् । यत् पुनः मया अपराद्ध एतत् पुनर्दहति सर्वाङ्गम् ।) __ जैसा कि जिनशासन में कहा गया है, मेरे बिना भी इनका नाश अवश्यंभावी है। पर जो मैंने अपराध किया है, वह मेरे अंग प्रत्यंग को जला रहा हैं ७७२। वोच्छंति य मयहरगा, अणागया जे य संपतिकाले । गारविय थूलभदम्मि, नाम नट्ठाई पुव्वाइं ।७७३।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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