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तित्थोगाली पइन्नय ]
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(चतुरुदधिसलिलसरिता-जलं च वृषभेषु प्रक्षिपन्ति सुराः । असुर-सुर-अप्सरा सहिताः, जिनाभिषेकं कृत्वा ।) ।
देवगण चारों महासागरों और महानदियों का जल वृषभों पर उडेलते हैं। असुरों, सुरों और अप्सराओं सहित जिनाभिषेक सम्पन्न करने के पश्चात् ।२४४। पम्हल सुबंध सुमन य, वत्थेण जिणाण अंगुवंग गयं । अवणेउ.ण जलरयं, सहस्सनयणा पयत् णं ।२४५॥ परिमल-सुगंध-सुमनश्च, वस्त्रंण जिनानामंगोपांगगतम् । अपनीत्वा जलरजं, सहस्रनयनाः प्रयत्नेन ।) .
पद्मपराग, सुगन्धित पुष्पों से निर्मित अंगराग एवं वस्त्रादि से इन्द्रों ने कुशलतापूर्वक जिनेश्वरों के अंगोपांगों पर लगे जल और विविध औषधियों के रजकणों को परिमार्जित कर-२४५॥ हरिचंदणाणुलित्ते, दिव्वाभरणहु भूसणे काउं । सक्का कुणंति तेसि, सीसपज्जावहारा दी ।२४६। (हरित् चन्दनानुलिप्तानि, दिव्याभरणानि हि भूषणानि कृत्वा । शक्राः कुर्वन्ति तेषां, शीर्षपर्यावहारादीनि ।)
दिव्य वस्त्राभूषणों को हरताल लिप्त से किया और उनसे जिनेश्वरों का नख-सिख शृंगार किया। २४६। कोउगसयाई विहिणा, काउणं जिणवराण मुहकमलं । न वि तिप्पतीखंता, अच्छि सहस्सेहिं देविंदा ।२४७/ (कौतुक शतानि विधिना, कृत्वा जिनवराणां मुखकमलम् । नापि तृप्यन्तीक्षन्ताः, अक्षि सहस्रः देवेन्द्राः ।)
तदनन्तर विधि सहित सैंकड़ों प्रकार के कौतुक कुतूहल करने के पश्चात् जिनेश्वरों के मुखकमलों को हजार-हजार नेत्रों से अनवरत देखते हुए भी तृप्त नहीं हो रहे थे ।२४७।