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________________ २८ ] [ तित्थोगाली पइन्नय (एवं चैव वक्तव्याः , एरवतादिषु नक्सु क्षेत्रेषु । एकैके च तदा, सप्तैव च कुलकराः क्रमशः ॥) ऐरवत आदि क्षेत्रों में भी इसी प्रकार की वक्तव्यता समझनी चाहिए। उनमें से प्रत्येक क्षेत्र में उसी काल में क्रमशः सात-सात कुलकर उत्पन्न हुए । सव्वे विमाणप्पवरे, अणुत्तरे भुजिऊण से भोए। सव्वट्ठसिद्धिनामे, उदहिसमाणाई तेतीसं १९१। (सर्वे विमानप्रवरे, अनुत्तरान् भुक्त वा ते भोगान् । सर्वार्थसिद्धि समानानि, उदधि समानानि त्रयत्रिंशत् ।।) पांच भरत तथा पांच ऐरवत- इन दशों, क्षेत्रों में इस अवसपिणी काल के प्रथम तीर्थङ्करों के च्यवन कल्याणक का विवरण प्रस्तुत करते हुए 'तिथ्थोगाली पइन्नयकार कहते हैं : वे सब (दशों प्रथम तीर्थङ्करों के जीव) विमानों में सर्वोत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में तेतीस सागरोपम तक सर्वोत्तम दिव्य भोगों का उपभोग कर ।६१॥ ओसप्पिणी इमीसे, तइयाए समाए पच्छिमे भाए । चइऊण विमाणाउ, उत्तरासाढाहि नक्खत्त ।९२।। (अवसर्पिण्यामस्या, तृतीयायाः समायाः पश्चिमे भागे । च्युत्वा विमानात, उत्तराषाढायां नक्षत्रे |) इस अवपिणी काल के तृतीय आरक के अन्तिम भाग में, उत्तराषाढा नक्षत्र में उस (सर्वार्थसिद्ध) विमान से च्यवन कर ।१२। कुलगर वंसपसूओ, आसी इक्खागवंस-संभूओ । नाभीनाम कुलगरो, पवरो तेसिं नरगणाणं ।९३। (कुलकरवंशप्रसूतः आसीत् इक्ष्वाकुवंशसंभूतः । नाभिर्नामकुलकरः, प्रवरः तेषां नरगणानाम् ।।). कुलकर वंश में जन्म ग्रहण किये हुए इक्ष्वाकुवंशावतंस. उस समय के मनुष्यों में सर्वाधिक श्रेष्ठ जो नाभि नामक कुलकर थे।६३।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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