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तित्योगाली पइन्नय ]
(किमस्मद् पलायनेन, मिक्षायाः किमिच्छया लभ्यन्ते । एवमिति जल्पमानास्तथापि च बहुका न गच्छन्ति ।)
"हमें यहां यथेच्छ भिक्षा मिल रही है । ऐसी दशा पलायन से क्या प्रयोजन ? " - इस प्रकार कहते हुए बहुत उस स्थान से अन्यत्र नहीं जायेंगे ६४८ |
पुव्वभव निम्मियाणं, दूरे नियडे व अलियवन्ताणं । कम्माण को पलायs, कालतुला संविभचाणं । ६४९ । (पूर्व भवनिर्मितानां दूरे निकटे वा अलीकवताम् । कर्मणां (णा) को पलायते, कालतुला संविभक्तानाम् । )
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दूरं वच्चइ पुरिसो, तत्थगतो निव्वु लभिस्सामि । तत्थ विपुव्वाईं, पुव्वगयाईं पडिक्खंति | ६५० । ( दूरं व्रजति पुरुषः, तत्रगतः निर्वृतिं लप्स्यामि । तत्रापि पूर्वकृतानि पूर्वगतानि प्रतीक्षन्ते ।)
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काल की तुला द्वारा अच्छी तरह विभाजित अपने पूर्व भावों में स्वयं द्वारा उपार्जित कर्मों से कोई प्राणी दूर नहीं भाग सकता क्योंकि वे तो प्राणी के दूरातिदूर चले जाने पर भी सदा सन्निकट एवं साथ लगे रहते हैं । ६४ ।
में हमें से साधु
अह दाणि सो नरिंदो, चउम्मुह दुम्मुह अधम्ममुह | पाडे पिण्डेउ, भणिही सव्वे करं देह । ६५१ | ( अथेदानीं स नरेन्द्रश्चतुर्मुखः दुर्मुखोऽधर्ममुखः । पाषण्डान् पिण्डयित्वा भणति - सर्वे करं दत्त ।)
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पुरुष यह सोच कर दूर जाता है कि वह वहां जा कर दुःखों से छुटकारा पायेगा किन्तु उसके पूर्वोपार्जित कर्म उस पुरुष के उस स्थान पर पहुंचने से पहले ही पहुँच कर उसकी प्रतीक्षा करने लगते हैं । ६५०।
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स्तूपों तथा समस्त पाटलिपुत्र की खुदाई से अपार स्वर्ण राशि प्राप्त कर लेने के पश्चात् वह चतुर्मुख, दुर्मुख अथवा अधर्ममुख