________________
८८ ]
[ तित्योगाली पइन्नय
उनका चक्र मध्याह्न के तरुण सूर्यमण्डल के समान परम तेजस्वी और भास्वर छत्र सब रोगों को दूर करने वाला, खड्ग शत्रुओं के दर्प का दलन करने वाला और दण्ड विषमातिविषम को भी शम अथवा सम करने वाला था । २६६।
1
चंम रयणमभेज्जं, मणिरयणं चैव संसि रोगहरं । रविससि-किरण पर, कागिणि रयणं च तं पवरं । २९७ | ( चर्मरत्नमभेद्य, मणिरत्नं चैव संशयरोगहरम् । रविशशिकिरणपरस्थं, काकिनीरत्नं च तत् प्रवरम् 1)
1
चक्रवर्ती भरत का चर्मरत्न अभेद्य मणिरत्न सब प्रकार के संशयों और रोगों का हरण करने वाला तथा प्रति श्रेष्ठ काकिनी रत्न सूर्य और चन्द्र की किरणों से भी अधिक ज्योतिष्मान था
२६७॥
सेणा अवसर, सेट्ठिवेसमणदेव पडितुल्लं । वड्ढरयण मणोहर, पुरोहियं चैव संतिकरं । २९८ | ( सेनापति अतीवशूरं श्रेष्ठि वैश्रवण देवपरितुल्यम् । वर्धक (वर्द्धति) रत्नं मनोहरं, पुरोहितं चैव शान्तिकरम् ।)
उनका सेनापतिरत्न प्रति शूरवीर, श्रष्ठिरत्न वैश्रवरण तुल्य, वर्धक (बढइ ) रत्न मनोहर और पुरोहित रत्न परम शान्तिकारक
था |२८|
fog जीवि विक्कल, हत्थि आसिं च वाउवेग सन । इत्थीरयण महणं, चोइसरयणाई भरहस्स | २९९ / रिपुजीवितविकरालं हस्त्यश्वे च वायुवेग समे । स्त्रीरत्नं महात्मं चतुर्दश रत्नानि भरतस्य । )
,
शत्रुनों के प्राणों के लिये विकराल काल के समान तथा वायुतुल्य वेग वाले हस्तिरत्न तथा अश्वरत्न और महाप्रारण स्त्रीरत्न इस प्रकार भरत चक्रवर्ती के ये चौदह रत्न थे । २६६
१ महात्मं - महाप्राणमित्यर्थः । गाथायां 'महार्घ' इति पाठस्यापि संभावनानुमीयते ' ।
1