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तित्थोगाली पइन्नय ]
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जिनके यहाँ चक्ररत्न उत्पन्न हमा, देवेन्द्र के विमान के समान वैभवशाली और बत्तीस हजार नरेश्वरों के नाथ उन चक्रवर्ती भरत के रत्नवैभव का वर्णन करता हूँ ।२६३।
छ खंड भरहसामी नवनिहिनाहं महायसं चक्कि । हयगयरहाण लक्खा, चउरासिंति तु गुणपुण्णा ।२९४। (षट्खण्ड भरतस्वामिनं नवनिधिनाथं महायशसं चक्रिम् । हयगजरथानां लक्षाः चतुरसीतिः तु गुणपूर्णाः ।)
वे भरत क्षेत्र के छः खण्डों के स्वामी, नव निधियों के नाथ, महायशस्वी और चक्री थे। उनके सर्वगुण सम्पन्न घोड़ों, हाथियों और रथों की संख्या प्रत्येक की चौरासी चौरासी लाख थी।२६४। चउसट्ठि सहस्स वारंगणाण, मुहपउगछप्पयं पयर्ड' । छन्नउई कोडीउ, पाइकाणं पयंडाणं ।२९५। (चतुःषष्टिसहस्रवारांगणानां मुखपद्माषट्पदम् प्रकटन् । षण्णवतिःकोटियः पदातिकानां प्रचण्डानाम् ।)
चक्रवर्ती भरत चौसठ हजार वरांगनाओं के मुखकमलों के भ्रमर और छयानवें करोड़ प्रचण्ड पदाति सैनिकों के स्वामो थे
२६५॥ तरुण रवि मंडलनिहं चक्कं, छत्तं च सव्वरोगहरं । रिउदप्पहरं खग्गं, दंडं विसमे वि तं समीकरणं ।२९६। (तरुणरविमण्डलनिभं चक्र, छत्रं च सर्वरोगहरम् । रिपुदर्पहरं खड्गं, दंडं विषमेऽपि तत् शमीकरणम् ।)
१ उपमा दोषोऽत्र मनसि महच्छल्यायते । प्रतोऽष्माभिरत्र खल्वधोलिखितं पदम् प्रस्तूयते :
"च उसठ्ठि सहस्स वरगण-छप्पयाण मुह प उम यउं ।"