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[ तिस्थोगाली पइन्नय दसवि जिणिंदा समये, दाणं दाऊण बच्छरं एगं । चित्त बहुलट्ठमीए, निक्खंता तेउ छ?णं ।२९०। (दशाऽपि जिनेन्द्राः समये दानं दत्वा वत्सरमेकम् । चेत्र बहुलाष्टम्यां, निष्क्रान्ता ते तु षष्ठेन ।)
दशों ही जिनेन्द्र समय पर एक वर्ष तक दान देकर चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन षष्ठ भक्त (बेले) की तपस्या से महाभिनिष्क्रमण कर दीक्षित हुए '२६०। फग्गुण बहुलेक्कारसी, अह अट्ठमेण भत्तंण । उप्पणंमि अणंते, महव्वया पंच पण्णवए ।२९१। . (फाल्गुन बहुलैकादश्यां, अथाष्टमेन भक्तेन । उत्पन्न ऽनन्ते, महाव्रतान् पंच प्रज्ञपयति ।)
तत्पश्चात् फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन अष्टम भवत (तेले) की तपस्या पूर्वक अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त चारित्र के उत्पन्न होने पर पंच महाव्रतों की प्ररूपणा करते हैं ।२६१।। तस्सासि पढम तणयो, चोद्दसरयणाहियो मणुयसिंहो । भरहो णाम महप्पा, अमरवरिंदोबमसिरीउ ।२९२॥ (तस्यासीत् प्रथमतनयः, चतुर्दशरत्नाधिपः मनुजसिंहः । भरतः नाम महात्मा, अमरवरेन्द्रोपम श्रीकः ।)
उनके ज्येष्ठ पुत्र चौदह रत्नों के स्वामी मनुष्यों में सिंह के समान और देवेन्द्रों के समान श्री, ऋद्धि सिद्धि सम्पन्न एवं ऐश्वर्य शाली भरत नामक महात्मा थे।२६२। उप्पन्न चक्करयणं, भरहं वण्णेमि रयणविभवेणं । सुरवइविमाणविभवं, बचीससहस्स निवनाहं ।२९३॥ (उत्पन्नचक्ररत्नं, भरत वर्णयामि रत्नविभवेन । सुरपति-विमानविभवं; द्वात्रिंशत्सहस्रनपनाथम् ।)