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तित्थोगाली पइन्नय }
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उग्गा भोगा राइन्न खत्तिया संगहो भवेच्चउहा । आरक्खिग गुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया तेउ ।२८७) (उग्राः भोजाः राजन्यः क्षत्रियाः संग्रहो भवेत् चतुर्धा । आरक्षकाः गुरुवयस्याः शेषाः ये क्षत्रियास्ते तु ।)
उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय--यह चार प्रकार का संग्रह किया गया। ऋषभ देव के समवयस्क साथी आरक्षक और शेष क्षत्रिय कहलाए ।२८७।
पंचेव य सिप्पाई घडलोहे चित्त णंत कासवणाई । एक्केकस्स चाए तो वीसं भवे भेया ।२८८। (पञ्चैव च शिल्पानि घट तोल चित्र नंत कार्षपणानि । एकैकस्य चत्वारि, तत विंशतिः भवेयुः भंदाः ।)
घट, (घड प्रादि वर्तन भाण्डे बनाने का कुम्भकार का शिल्प) लोह. (लोह आदि धातुओं के अस्त्र-शस्त्र उपकरणादि बनाने का लोहकार अथवा धातुकार का शिल्प) चित्रकारी, रगत अर्थात् वस्त्रादि की बुनाई का शिल्प और कर्षण अर्थात् कृषि शिल्प--ये पांच प्रकार के शिल्प भगवान् ऋषभदेव ने लोगों को सिखाये । इन पांचों शिल्पों में से प्रत्येक के चार चार भेद किये जाने पर शिल्प के बीस भेद होते हैं ।२८८ पुत्तसयस्स पुर सयं निवेसियं तेण जणवय सयं च । . इह भारहमिवासे सो पढम पती वसुमईए ।२८९। (पुत्रशतस्य पुरशतं, निवेशितं तेन जनपदशतं च । इह भारत वर्षे सः प्रथमपती वसुमत्याः ।)
राज्य सिंहासन पर प्रारूढ होने के पश्चात् भगवान् ऋषभदव ने अपने १०० पूत्रों के लिये १०० जनपद और सौ ही नगर बसाये । इस भरत क्षेत्र में भगवान ऋषभदेव ही सबसे प्रथम पृथ्वीपति थे।२८६।