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तित्थोगालो पइन्नय ।
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नव जोयण वित्थिण्णा, नवनिहीउ अट्ठ जोयणुस्सेहा । बारस जोयण दीहा, हिय इच्छियरयण संपुण्णा ।३००। (नव योजन विस्तीर्णाः, नवनिधयोऽष्टयोजनोत्सेधाः । द्वादश योजन दीर्घाः, हृदयेच्छितरत्न संपूर्णाः ।)
चक्रवर्ती भरत नौ निधियों के स्वामी थे। वे नौ निधियाँ नौ योजन विस्तार अर्थात् चौड़ाई वाली, पाठ योजन ऊँचाई वालो तथा बारह योजन दीर्घ अर्थात् लम्बी और मनोवांछित सब प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण थीं ।३००।
(मूल प्रति में उपर्युक्त गाथा की संख्या २६६ है और गाथा संख्या ।३००। नहीं है) नेसप्प पंड पिंगल, रयण महापउम काल नामा य । तत्तो य महाकले, माणव-ए संखनामे य ।३०२। (निसर्प पाण्डुर पिंगल रत्न महापद्म काल नामा च । ततश्च महाकालः, माणवकः शंख नामा च ।)
नैसर्प, पाण्डुक, पिंगल, सर्वरत्न, महापद्म, काल, महाकाल, माणवक और शंख महानिधि-ये ६ प्रकार की निधियां होती हैं
।३०२॥ एवं भरह सरिच्छा, नवसुवि खेत्तेसु चक्किणो होति । एत्तो परं तु वोच्छं, जो जाओ चुओ विमाणाओ ।३०३। (एवं भरत सदृशा, नवस्वपि क्षेत्रेषु चक्रिणः भवन्ति । अतः परं तु वक्ष्ये, यः यस्मात् च्युतः विमानात् ।)
इस प्रकार भरत के समान ही ६ शेष क्षेत्रों में भी चक्रवर्ती होते हैं । अब आगे मैं यह बताऊंगा कि चौवीस तीर्थङ्करों में से कौन किस विमान से च्यवन कर उत्पन्न हुए ।३०३। चत्तारि एक्कओ तिन्निय, तओ सत्त एक्कमेकाउ । पंचहितो दोय चुए, वदामि जिणे चउव्वीसं ॥३०४।