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• तित्थोगाली पइन्नय ]
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( कि त्वरसि तु रे नृशंस किं बाधसे श्रमण संघम् । सर्वं तत् पर्याप्तं, ननु कति दिवसान् प्रतीच्छसि )
" श्रमण संघ को पीड़ा पहुँचा कर तू क्यों शीघ्र ही मरना चाहता हैं । बस, तू पर्याप्त दुष्टता कर चुका, बोल अब तू कितने दिन जीना चाहता है ? ६८४
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तासिंपि य असतो, छट्टु भिक्खस्स मग्गए भागं ।
कासगं चिट्ठिय, सक्कस्साराहणट्टाए । ६८५ | (तासामपि च [ वचनं ] अण्वन् षष्ठं भिक्षायाः मृग्यते भागम् । कायोत्सर्गं स्थिताः शक्रस्याराधनार्थाय ।)
देववाणी को अनसुनी करते हुए वह श्रमणों से भिक्षा का छट्ठा भाग मांगने लगा श्रमण वर्ग शक्र की आराधनार्थ कायोत्सर्ग कर निश्चल खड़ा हो गया । ६८५।
गोवाडंमि निरुद्धा, समणा रोसेण मिसमियायंता |
खो यति राय कट्टो हिं सप्पं [व्यं] चि
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[ राय मा बाधेह संघति ] | ६८६ ।
(arch निरुद्धा: श्रमणा रोषेण मिसमिसायन्तः । अम्बा यक्षश्च भणतः, राजन् मा बाधय संघ मिति ।)
श्रमण संघ द्वारा भिक्षा का छट्टा भाग कर के रूप में देना स्वीकार न किये जाने की दशा में क्रोधातिरेक से दांतों को पीसते हुए कल्की ने श्रमण संघ को गायों को गवाड़ में बन्द कर दिया । यह देख अम्बा और यक्ष उससे कहते हैं -- "राजन् ! अब बस करो, श्रमणों को बहुत कष्ट दे चुके हो ।" । ६८४ । काउसग्गठिएसु, सक्कस्साकंपियं तओ ठाणं ।
भोsय ओहीए, खिप्पं तिदसाहिवो एह | ६८७ |
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( कायोत्सर्ग - स्थितेषु शक्रस्य आकम्पितं ततः स्थानम् | आभोग्य अवधिना, क्षिप्रं त्रिदशाधिपः एति ।)