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तित्थोगाली पइन्नय ]
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[स्पष्टीकरण :- निश्चय नय के अनुसार ज्ञान ( मति, श्रुति, अवधि आदि). दर्शन (तत्त्वरुचि); चारित्र (पाप पर्ण सभी क्रियाओं का परित्याग) ये ही मोक्ष प्राप्ति के शाश्वत सत्य साधन हैं। चौवीसों तीर्थंकरों ने समान रूप से इन तीनों को मोक्ष प्राप्ति का सच्चा साधन बताया है। वस्तुतः वेष व्यवहार नय की अपेक्षा मोक्ष का माधन है, न कि निश्चय नय की अपेक्षा। प्रथम तीर्थंकर के शासनकाल के साधु शिक्षाग्रह करने में तत्पर सरल प्रकृति के किन्तु वास्तविकता को कठिनाई से समझने वाले, अन्तिम तीर्थ कर के शासन काल के साधू सामान्यतः शिक्षा को अवधारण करने में वक्र (टेढ़ी-कुटिल ) प्रकृति वाले होने के कारमा जड (कदाग्रहो), और मध्यवर्ती बावीस तीर्थ करों के शासनकाल के साधु ऋजुप्रज्ञ अर्थात् सरल प्रकृति के धनी होने के कारण शिक्षा ग्रहण करने में तत्पर एवं स्वल्प में ही सब कुछ समझ जाने वाले प्रकृष्ट बुद्धिशाली होते हैं। ऋजु किन्तु जड़ प्रकृति के कारण प्रथम तीर्थ कर के साधुओं के लिये कल्प प्रकल्प का स्पष्टतः पृथक-पृथक विशद विधान होने पर ही वे अपने श्रमणाचार को विमल-दोषरहित बनाये रख सकते हैं । अधिकांशतः कुटिल एवं कदाग्रही प्रकृति के कारण वस्तुतः अन्तिम तीर्थ कर के साधुओं के श्रमणाचार को विशुद्ध बनाये रखने के लिये कल्पाकल्प के सम्बन्ध में इस प्रकार के स्पष्ट एवं विशद विधान की आवश्यकता रहती है, जिसमें कि शैथिल्य एवं कूतर्क के लिये कोई स्थान न हो क्योंकि वे वक्रजड़ साधु कठोर श्रमणाचार को समझते हुए भी पालन करने में अशक्त होने की दशा में उस कष्टसाध्य श्रमणाचार से बचने के लिये कोई न कोई शैथिल्य का मार्ग ढूंढ निकालने में तत्पर रहते हैं । किन्तु मध्यवर्ती बावीस तीर्थ करों के ऋजू-प्राज्ञ साधुओं के लिये केवल इतना कह देना ही पर्याप्त है कि साधु के लिये स्त्री और साध्वी के लिये पुरुष भी परिग्रह ही है। अतः चतुर्थ महाव्रत ब्रह्मचर्य का पंचम महाव्रत अपरिग्रह में ही समावेश हो जाता है। वस्त्र के वर्ण, मूल्य एवं प्रमाण के निर्देश के अभाव में भी उन्होंने वस्त्र को केवल लज्जा ढंकने का साधन मात्र समझा। इस विधान के अनुसार अब्रह्म को भी परिग्रह मान कर बावीस तीर्थ करों के ऋजुप्राज्ञ साधू ब्रह्मचर्य महाव्रत को अपरिग्रह में सम्मिलित समझ अहिंसा, सत्य, अस्तेय और