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[तित्थोगाली पइन्नय
अपरिग्रह रूपी चातुर्याम धर्म में ही पांचों महाव्रतों का पूर्णतः पालन करते हैं। यही कारण है कि तीर्थ करों ने अपने-अपने शासनकाल के साधुओं की प्रकृति एवं प्रज्ञा को ध्यान में रखते हुए पंचमहाव्रत और चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा का । प्रथम और अन्तिम तीर्थ कर ब्रह्मचर्य महाव्रत का पृथकतः उपदेश नहीं करते तो प्रथम तीर्थ कर के ऋजूजड़ प्रकृति के साधु "प्रभु ने चार महाव्रतों के पालन का ही उपदेश दिया है"-यह कह कर ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन नहीं करते। अन्तिम तीर्थ कर के साधु भी अपनी अऋजु और कदाग्रहो प्रकृति के कारण-"यदि प्रभु को पांचों महाव्रत अभिप्रेत होते तो स्पष्टतः पृयकतः उन पाँचों का उल्लेख करते"- इस प्रकार के अनेक तर्क प्रस्तुत कर ब्रह्मचर्य महाव्रत को छोड़ केवल शेष चार महाव्रतों का ही पालन करते।
इसी बात को दृष्टिगत रखते हए प्रथम प्रोर अन्तिम तीर्थ कर अपने साधुओं को छेदोपस्थापन (पूर्व-पर्याय को छेद कर अपनी आत्मा को पंचम महावत रूपी चारित्र में उपस्थापन करने) का उपदेश करते हैं। छेदोपस्थापन का स्वरूप निम्नलिखित गाथा में नपे तुले शब्दों में स्पष्टतः बताया गया है
छेत्त ण तु परियायं, पोराणं तो उवित्ति अप्पाणं।
धम्मम्मि पंच जामे, छेप्रोवट्ठावणे स खलु ॥] एवं नवसुवि खेत सु, पुरिमपच्छिममज्झिम जिणाणं । वोच्छं गणहरसंखं, जिणाणं नामं च पढमस्स ।४५१। (एवं नवष्वपि क्षेत्रेषु, पुरिम-पश्चिम-मध्यम जिनानाम् । वक्ष्ये गणधर संख्यां, जिनानां नाम च प्रथमस्य' ।)
इस प्रकार शेष ६ क्षत्रों में भी प्रथम और अन्तिम तीर्थ करों के शासनकाल में साधुओं का छेदोपस्थापन व्रत रूप धर्म अथवा कल्प और मध्यवर्ती बावीस तीर्थ करों के साधुओं का चातुर्याम धर्म होता है। अब मैं तीर्थंकरों के नाम, उनके गणधरों को संख्या तथा उनके प्रथम गणधरों के नाम का कथन करूँगा ।४५१।
१ गणधर संख्यां जिनानां नामं, तेषा प्रथम गणधरस्य नाम च
वक्ष्यामीत्यर्थः ।