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तित्थोगाली पइन्नय तीर्थोद्गारिक प्रकीर्णक
जयइ ससिपाय - निम्मल - तिहुयण वित्थिण्ण- पुण्णजस-कुसुमो । उसभी केवल दंसण दिवायसे दिट्ठदट्ठव्वो । १।
( जयति शशिपाद - निर्मल त्रिभुवन विस्तीर्ण पुण्य-यश कुसुमः । ऋषभः केवल-दर्शन- दिवाकरः दृष्ट-द्रष्टव्यः । )
चन्द्रकिरण के समान समुज्ज्वल, जिनका पावन यश रूपी पुष्प सम्पूर्ण (ऊर्ध्व, श्रधः, तिर्यक्) लोकों में व्याप्त है, वे संसार के समग्र चर-अचर एवं रूपी अरूपी पदार्थों को देखने-जानने वाले अनन्तदर्शन के सूर्य प्रभु ऋषभदेव जयवन्त हैं । १ । बावीस च निज्जियपरीसह कसाय - विग्ध-संघाया । अजियाईया भवियारविन्द - रविणो जयंति जिणा |२| ( द्वाविंशति च निर्जित - परीषह - कषाय - विघ्न - संघाता । अजितादिका भविकारविन्दरवयः जयंति जिनाः ।। )
परीषहों, कषायों और विघ्नों के (सम्पूर्ण) समूहों पर ( पूर्णतः ) विजय प्राप्त करने वाले एवं कमलपुष्प स्वरूप भव्य प्राणियों के लिये सूर्यों के समान (सुखप्रद ) भगवान् अजितनाथ आदि बावीस तीर्थ कर जयवन्त हैं |२|
जयइ सिद्धत्थ- नरिंद- विमल - कुल विपुल नहयल - मयंको । महिपालस सिमहोरगमहिंद महिओ महावीरो | ३ | (जयति सिद्धार्थ नरेन्द्र विमलकुल विपुल नभस्तल - मयंकः । महिपाल - राशि -महोरग - महेन्द्र - महितो महावीरः । )
महाराज सिद्धार्थ के उज्ज्वल कुलरूपी गगन मण्डल के पूर्णचन्द्र तथा नरेन्द्रों, नक्षत्रेन्द्रों, नागेन्द्रों और महेन्द्रों द्वारा पूजित भगवान महावीर जयवन्त हैं । ३ ।
* शशिपाद - शशिकिरण इत्यर्थः