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नमिऊण समण-संघ सुनाय - परमत्थ- पायडं वियङ । वोच्छं निच्छययत्थं, तित्थोगालीए संखेवं | ४ | (नव्वा श्रमण-संघ मुज्ञात-परमार्थ-प्राकृतं विकटं ।' वक्ष्यामि निश्चितार्थं, तीर्थोद्गालिकस्य संक्षेपम् ।)
परमार्थ के पूर्णरूपेण ज्ञाता, अनादि और विराट श्रमण संघ को नमन कर मैं तीर्थोद्गार ' ( तीर्थोद्गम ) अथवा तीर्थ के ओग्गालों (दश क्षेत्रों में) प्रवाहों के सुनिश्चित अर्थ का संक्षेपतः कथन
करूँगा ।४।
[ तित्थोगाली पइन्नय
रायगिहे गुण - सिलए भणिया वीरेण गणहराणं तु । पय सयमहरूसमेयं, वित्थरओ लोगना हेणं | ५ |
(राजगृहे गुणशीलके, भणिता वीरेण गणधरेभ्यस्तु | पदशत - सहस्रमेतं विस्तरतः लोकनाथेन ।)
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त्रिलोकीनाथ भगवान् महावीर ने राजगृह नगर के गुरणशीलक नामक उद्यान में विस्तारपूर्वक एकलाख पद - प्रमाण तीर्थोद्गारिक अथवा तीर्थ प्रवाहों के प्रकीर्णक का कथन गरणधरों को किया । ५। अइ संखेवं मोत्त, मोत ण पवित्थरं अहं भणिमो । अप्पक्खरं महत्थं, जह भणियं लोगनाहेण | ६ |
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( अति संक्षेपं मुक्त्वा, मुक्त्वा प्रविस्तरं अहं भणामि ।
अल्पाक्षरं महार्थं यथा भणितं लोकनाथेन ।)
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अति संक्षेप और अति विस्तार इन दोनों पद्धतियों का परित्याग कर मैं प्रगाढ़ अर्थ भरे स्वल्पाक्षरों में उसका उसी प्रकार वर्णन करूँगा जिस प्रकार कि विश्वनाथ ( प्रभु महावीर ) ने कहा था | ६ | कालोउ अणाईओ, पवाहरूवेण होइ नायव्वो । निविहूणो सो च्चिय, बारस अरगेहिं निद्दिट्ठो ७ (कालस्तु अनादिकः, प्रवाहरूपेण भवति ज्ञातव्यः । निधन - विहीनः स खलु द्वादशारकैः निर्दिष्टः । )
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१ महान्तम् । २ - ३ देखिये 'पाइयसद्द - महण्णवो