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________________ तित्थोगाली पइन्नय ] [३ काल अनादिकाल से (नदी के) प्रवाह के समान निरन्तर गतिशील है, यह जानना चाहिए। वह (काल) अन्तरहित है और बारह अरों ( काल विभागों ) द्वारा उसका निर्देश किया गया है ।७। दव्वट्ठयाए निच्चो, होई अणिच्चो अ नयमए बीए । एगत्तो मिच्छत्त, जिणाण आणा अणेगंता ।८। (द्रव्यार्थतया नित्यः भवति अनित्यश्च नयमते द्वितीये । एकान्तो मिथ्यात्वम् , जिनानां आज्ञा अनेकान्ता ।) वह कालद्रव्य द्रव्याथिक नय अर्थात् द्रव्य को अपेक्षा नित्य. शाश्वत और द्वितीय पर्यायार्थिक नय अर्थात् पर्याय की अपेक्षा अनित्य (विनाशशील) है । इसे एकान्तरूप से नित्य अथवा अनित्य मानना मिथ्यात्व है. क्योंकि जिनेश्वरों ( वीतराग सर्वज्ञों) ने अनेकान्त (स्याद्वाद) सिद्धान्त को स्वीकार करने की आज्ञा प्रदान की है ।८। ओसप्पिणी य उस्सप्पणी य, भरहे तहेव एरवए । परियत्तति कमेणं, सेसेसु अवठिओ कालो ।९। (अवसर्पिणी च उत्सर्पिणी च, भरते तथैव ऐरवते । पर्यटतः क्रमेण, शेषेषु अवस्थितः कालः ।) ढाई द्वीप के पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों में अवसर्पिणी काल और उत्सपिणी काल क्रमशः परिभ्रमण करते रहते हैं। शेष सभी क्षेत्रों में यह काल अपरिवर्तनीय रूप में सदा एक समान विद्य. मान रहता है ।। ओसप्पिणी पमाणं, भणंति लोगुत्तमा निहयमोहा । सवण्णु जिण-वरिंदा, समासओ तं निसामेह ।१०। (अवसर्पिणी प्रमाणं, भणंति लोकोचमा निहत-मोहाः । सर्वज्ञाः जिनवरेन्द्राः, समासतः तन्निसामयत ।) ___ मोह को विनष्ट करने वाले लोकोत्तम सर्वज्ञ जिनेश्वर (समय समय पर) अवसर्पिणी काल का (जो) प्रमाण बताते हैं, उसे संक्षेपतः, सुनिये ।१०।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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