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जन्मभूमि का त्याग और उधर एक मात्र प्राश्रय माता की रुग्णता। वि. सं. १६५७ में आपकी माता कदीबाई भी अपने प्रबोध बच्चों को प्रसहाय छोड़ परलोकवासिनी बन गई। १३ वर्ष की छोटी वय में ही हमारे चरित्रनायक को किस प्रकार की भीषण प्रापत्तियाँ सहनी पड़ीं, इसका अनुमान प्रत्येक पाठक सहज ही लगा सकता है। पर वस्तुतः विपत्ति हो वीरों और विचारकों को जन्म देती है। एक राजस्थानी कवि ने कहा भी
संग जल जावे नारियाँ, अर नर जावे कट्ट ।
घर बालक सूना रमै, उरण घर में रजवट्ट ।। हमारे चरित्रनायक उस समय के तोलाराम ने भी प्रापत्तियों से घबराकर धैर्य नहीं छोड़ा। उतर पड़े वे कर्मक्षेत्र में। माता की मृत्यु के पश्चात् प्रापने देलदर के सेठ हंसराजजी प्रेमराज जो पोरवाल के यहाँ पाजीविकोपार्जन हेतु कार्य करना प्रारम्भ किया । बारह-तेरह वर्ष की प्रायु का बालक तोलाराम श्रेष्ठी के घर के काम में जूझने लगा। घर के छोटे बच्चों को रखना, गाय और भंस को चारा, बांटा नीरना, गाय भैस का दूध निकालना और दधिमन्थन करना, य बालक तोलाराम के जिम्मे मुख्य काम थे। इनके अतिरिक्त घर के और भी प्रावश्यक कार्यों को करने में हमारे चरित्रनायक ने किसी प्रकार की प्रानाकानी नहीं की। "सब को काम प्रिय हैं न कि चाम (सुन्दर गौरवर्ण)" इस कहावत के अनुसार बालक तोलाराम ने घर भर के लोगों का मन जीत लिया। सभी तोलाराम को अपने घर का हो एक सदस्य समझने लगे।
अध्यापक के पास घर के बालकों को पढ़ते देखकर तोलाराम भी उनके पास बैठ जाता। तीवबुद्धि तोलाराम थोड़े ही दिनों में प्रारम्भिक लिखना पढ़ना मोर गणना सीख गया। . जिस घर में बालक तोलाराम रह रहा था वह घर जैन धर्मावलम्बी था। विविध क्षेत्रों में विचरण करते हुए जैन साध-साध्वियों का देलदर में प्रानाजाना रहता ही था। तोलाराम पर स्नेहातिरेक से घर के लोग बहुधा साधुसाध्वियों को बालक तोलाराम के हाथ से ही प्राहार-पानी प्रादि वहराते थे।
संयोग से कीर्तिचन्द्रजी महाराज का देलदर में पदार्पण हुा । उनके साथ गुलाबचन्दजी नामक एक वैरागी थे जो आज भी महान सौभाग्यशाली
भाग्यविजय नी के नाम से महासन्त के रूप से विराजमान हैं। वैरागी गुलाबचन्द जी को श्री कीर्तिचन्द्रजी महाराज के पास पढ़ते हुए देख कर बालक