________________
३२४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(वनखण्ड इव कुसुमितः पद्मसरो वा यथा शरत्काले । शोभते कुसुमभरेण, एवं गगनतलं सुरगणः ।)
जिस प्रकार प्रफुल्लित सुविशाल पुष्प बन अथवा शरद् ऋतु में पद्म-सरोवर यत्र तत्र-सर्वत्र खिले फूलों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार सुरों एवं सुरबालाओं के समूहों से व्याप्त वहां का गगन मण्डल बड़ा सुशोभित हो उठता है ।१०८१। अह सिद्धत्थवणं व जहा, अमणवणं सणवणं असोगवणं । चूतवणं व कुसुमियं, इय गयणयलं सुरगणेहिं ।१०८२। (अथ सिद्धार्थवनं वा यथा, अशनवनं सणवनं अशोकवनम् । चूतवनं वा कुसुमितं, एवं गगनतलं सुरगणैः ।)
देव-देवी वन्द से व्याप्त गगन मण्डल इस प्रकार शोभायमान होने लगेगा मानो सिद्धार्थ वन, अशनवन, सरण वन, अशोक वन,
और आम्रवन एक साथ ही वहां कुसुमित हो उठे हों । १०८२। अलसिवणं व कुसुमितं, कणियारवणं व चंपयवणं वा । तिलगवणं सुकुसुमियं, इय गयणयलं सुरगणेहिं ।१०८३। (अलसिवनं वा कुसुमितं. कर्णिकारवनं वा चम्पकवनं वा । तिलकवनं सुकुसुमितं, एवं गगन-तलं सुरगणैः ।)
देवों एवं अप्सराओं के समूहों से व्याप्त वहां का गगन मण्डल उस समय ऐसा शोभायमान हो रहा होगा, मानो अलसी, कनेर, चंपक और तिलों के वन विविध सुन्दर पुष्पों से भरे पूरे हो लहलहा रहे हों । १०८३। वरपडहभेरि झल्लरि, दुंदुहि संखसतेहिंतुरीहिं । घरणि यलगयणयले, तुरिय निनाओ परम रम्मो १०८४। (वर पटह-भेरि-झल्लरि-दुंदुभि-शंख शतैः तुरीभिः । धरणितल गगनतले, तूर्य निनादः परम रम्यः )
सैंकड़ों अत्युत्तम पटहों भरियों झल्लरियों, दु'दुभियों शङ्खों एवं तूर्यों के कर्णप्रिय अतिरम्य निनाद धरातल पर और गगन मण्डल में होने लगेंगे ।१०८४।