SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ [ भोण वरेभए, रज्जं काऊण दाऊ दाणं तु । काऊण य सामण्णं, आहिंति अयरामरं ठाणं । १२४ । ( क्त्वा वरान् भोगान् राज्यं कृत्वा दत्वा दानं तु । कृत्वा च श्रामण्यं गमिष्यन्ति अजरामरं स्थानम् । ) , ; [ तित्थोगाली पइन्नय "वे उत्तमोत्तम भोगोपभोगों का उपभोग कर सुदीर्घ काल तक राज्य करने के पश्चात् वर्ष भर महादान देकर श्रमण धर्म की परिपालना एवं स्थापना करेंगे और अन्त में अजरामर स्थान - मोक्ष में जावेंगे । १२४ ।" एवं दोवि सुरिन्दा, सुमिण - फलं साहिऊण मिहुणाणं । अच्छह मुहंतिवृत्त, आमन्तेउ ? गया सग्गं । १२५ । ( एवं द्वावपि सुरेन्द्रौ स्वप्नफलं साधयित्वा मिथुनेभ्य | आस्तां सुखेन इति उक्त्वा, आमन्त्रयित्वा गतो स्वर्गम् ।) ' -- इस प्रकार दोनों सुरेन्द्र उन दशों कुलकर मिथुनों को चौदह स्वप्नों का फल बता, 'सुखपूर्वक रहिये' - - यह निवेदन करने के. पश्चात् उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर अपने-अपने स्वर्गलोक की प्रोर लौट गये । १२५ । अह हरिसिया कुलगरा, आदेशं तं सुत, सक्काणं । जणणीओ वि पमोयं, अउलं गच्छति तं वेलं । १२६ । (अथ हर्षिता कुलकराः, आदेशं तत् श्रुत्वा शक्रयोः । जनन्योऽपि प्रमोदमतुलं गच्छन्ति तस्यां वेलायाम् (तां वेलाम्) ।) दोनों इन्द्रों द्वारा बताई गई ज्ञातव्य बातों अथवा निर्देश को सुनकर कुलकर बड़े हर्षित हुए । जिनेश्वरों की जननियां भी उस बेला में परम प्रमुदित हुई । १२६। १ श्रमंतरण - श्रामन्त्रण न० । प्रभिनन्दने, सम्बोधने, कामचारानुज्ञारूपे । २ (क) श्रादेशो नाम ज्ञातव्य वस्तुप्रकार : ( विशेषावश्यक भाष्य ) (ख) प्रादिश्यत इत्यादेश: निर्देशे (निशीथ चू., उ. १)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy