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तित्थोगाली पइन्नय
तो तं दसद्धवण्णं, पिंडगर्ग छमायलं विमले। सोहइ नवसरयमिवसुनिम्मलं जोइ संगमणे ।१५१। (ततस्तद्दशार्द्ध वर्ण, पिण्डगतं क्ष्मातले विमले। शोभते नवसरमिव सुनिर्मल ज्योतिसंगमे ।)
एक दूसरे से संलग्न पांच वर्ण के फूलों का सर्वत्र छाया हुआ वह एकोभूत पुष्प समूह सूर्य को किरणों के संयोग से चकाचौंध फैलाते हुए नवसर हार के समान उस विमल धरातल पर सुशोभित होने लगा ।१५१ तह कालागरु कुंदुरुक्क धूयमप्पमत्त तद्दिसिकं । काउ सुरकण्णाउ चिट्ठति पगासमाणीउ ।१५२। (तथा कालागरुः कुंदरुक्क,-धूपमप्रमत्ताः तद्दिशिकम् । कृत्वा सुरकन्यकान्तु, तिष्ठन्ति प्रकाशमानाः ।)
वे दिशाकुमारियां कालागरु, कुन्दुरुक्क आदि सुगन्धित द्रव्यों . से निष्पन्न धूप को जलाकर जिनजन्म-भवन की ओर सुगन्धित धूम को प्रवाहित करती हुई तथा अपने शरीर की प्रभा से दशों दिशाओं को प्रकाशमान करती हुई अप्रमत्त हो उपस्थित रहती हैं ।१५२। गंदुत्तरा य णंदा, आणंदा णंदिवद्धणा चेव । विजयाय वेजयन्ती, जयन्ती अवराइआट्टमिया ।१५३। (नन्दोत्तरा च नन्दा, आनन्दा नन्दिवर्धना चै । विजया च वैजयन्ती, जयन्ती अपराजिता अष्टमिकां ।)
नन्दोत्तरा, मन्दा, आनन्दा, नन्दिवर्द्धना, विजया, वैजयन्तो, जयन्ती और आठवीं अपराजिता-१५३। एयाउ रूयग नगे, पुव्वै कडे वसंती अमरीओ। आयंसंग हत्थाओ. जणणीण डांति पुव्वेण ।१५४। (एतास्तु रूचकनगे, पूर्वे कटे वसन्त्यः अमर्यः । आदर्शक हस्ताः, जननीनां तिष्ठन्ति पूर्वेण ।)