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________________ ५० ] [ तित्योगाली पइन्नय रुचक पर्वत के मध्य भाग में विदिशाओं में रहने वाली - विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता -- ये चार दिव्य देवियां । १६३। नालं छेतूण तया, मुणाल सिरियं जिणिंद चंदाणं । , रयणसमु काउ' पससत्थ भूमीस निहति । १६४ | (नालं चित्वा तदा, मृणालसदृशं जिनेन्द्र चन्द्राणाम् । रत्न समुद्गे कृत्वा, प्रशस्त भूमीषु निःखनन्ति ।) जिनेन्द्र बालचन्द्रों के कमलनाल के समान कोमल नाल को काट कर, उन्हें रत्नपात्रों में रख प्रशस्त एवं पवित्र भूमि के गर्भ में विवर खोद कर गाड़ देती हैं । १६४ | · ( जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के उल्लेखानुसार विवर खोद कर नाल को उसमें रख देती हैं और उस को रत्नों और वज्रों से ढक कर ऊपर मिट्टी डाल हरितालिका ( दूब) से विवर के मुख को बांध देती हैं ताकि उस पर दूब उग जाने के पश्चात् कालान्तर में किसी प्रकार की आशातना न हो ) हरियालिया पेढाई, बन्धित्ता विवराण सव्वेसिं । कुव्वन्ति कदलि घर, दाहिण पुव्युत्तर दिसासु । १६५। ( हरितालिकाभिः पृष्ठानि बध्वा विवराणि सर्वेषाम् । कुर्वन्ति कदलि गृहाणि, दक्षिण-पूर्वोत्तर दिशाषु 1) फिर वे उन सब विवरों (खड्डों) को पृष्ठ को दूब से बांधती हैं और पश्चिम दिशा को छोड़कर दक्षिण पूर्व तथा उत्तर इन तोनों दिशाओं में तीन कदलिगृह बनाती हैं । १६५ । तेसिं बहुमज्झदेसे, चाउस्साले तओ विउव्वेंति । मज्झे तंसि तिनिय, रययंति सिंहासणवराह | १६६ । ( तासां बहुमध्य देशे, चतुःशालकानि ततः विकुर्वन्ति । मध्ये तासां त्रीणि च रचयन्ति सिंहासन वगणि 1 ) १ समुग्ग - समुद्ग । पात्र विशेष (जीवाभिगम सटीक )
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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