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________________ तित्थोगाली पइन्नय । . [ ३२७ सभी तीर्थंकर माता के गर्भ में अवतरण करते समय के च्यवनकाल से ले कर चारित्र ग्रहण करने से पूर्व के गृहस्थ काल तक मति, श्र ति और अवधि इन तीन ज्ञान के धारक होते हैं। चारित्र ग्रहण करते ही उन्हें मनःपर्यव नामक चौथा ज्ञान भी हो जाता है और छद्मस्थ काल में कैवल्योपलब्धि से पूर्व तक वे चार ज्ञान के धनी रहते हैं । १०६१। नवसुवि वासेसेवं, सिद्धत्थादी जिणिंद चन्दाउ । हत्युत्तराई सव्वे, मिगसिर बहुलस्स दसमीए ।१०९२। . (नवस्वपि वर्षेष्वेवं, सिद्धार्थादि जिनेन्द्र चन्द्रास्तु । हस्तोत्तरायां सर्वे, मृगशिर बहुलस्य दशम्याम् ।) (चारित्रमारोक्ष्यन्ते इति शेषः) ___ इसी प्रकार शेष ६ क्षेत्रों में भी सिद्धार्थ आदि तीर्थंकर मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन हस्तोत्तरा नक्षत्र के योग में अभिनिष्क्रमण कर प्रवजित होंगे । १.०६२।। बारस चेव य वासा, मासा छच्चेव अद्ध मासो य । पउमादीण दसण्हवि, एसो छउमत्थ. परियाओ ।१०९३। (द्वादश चैव च (तु) वर्षाः, मासाः षड्चैव अर्द्ध मासश्च । पद्मादीनां दशानामपि, एषः छमस्थ पर्यायः ।) महापद्म प्रादि दशों ही तीर्थंकरों का १२ वर्ष, ६ मास और १५ दिन का छद्मस्थपर्याय रहेगा ।१०६३। एवं तवोगुणरतो, अणु पुव्वेणं मुणी विहरमाणो। वज्जरि सह संघयणे, सत्तेव य होंति रयणीओ १०९४, (एवं तपोगुणरतः आनुपूर्व्या मुनिः विहरमानः। .. वज्रर्पभ संहननः, सप्तैव च भवति रत्नीकः ।। इस प्रकार सात रत्नी (मुड हाथ ) लम्बे, वज्र ऋषभ नाराच संहनन वाले , तपश्चरण और श्रमरण-गुणों में अनुरक्त भगवान् महा. पद्म अनुक्रमशः अप्रतिहत विहार करते हुए—।१०६४
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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