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________________ ३२६ ] जिणवरमरणुण्णविचा, अंजणघणरूयगव्भमर संकासा । केसा खणेण नीता, खीर सरीस नाम यं उदहिं । १०८८ । (जिनवर मनुज्ञाप्य, अंजन घन रुचक भ्रमर संकासा । केशा क्षणेन नीता क्षीर-सरिदीश नामकं उदधिम् ।) [ तित्थोगाली इन्नय शक्र प्रभु महापद्म की प्राज्ञा प्राप्त कर काजल, कालो बादल, रुचक तथा भ्रमर के समान काले उन लुश्चित केशों को क्षण मात्र में क्षीर सागर में डाल लौट आयेगा १०८८ दिव्यो मणस्स घोपो तुरिय निनाओ य सक्क वयणेणं । खिपामेव निलुको, ताहे पडिवज्जइ चारित्र | १०८९ । (दिव्यो मनुष्यघोषस्तुरहीनिनादश्च शक्रवनेन । क्षिप्रमेव निलुप्त, ततः प्रतिपद्यते चारित्रम् ) तदनन्तर शक्र के कथन से तत्काल देवों तथा मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले जयघोष और तूर्य प्रादि वाद्यों की ध्वनि बन्द हो जायगी और प्रभु निर्ग्रन्थ चारित्र ग्रहण करेंगे । १०८ । काऊण नमोक्कारं, सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिहे । सव्वं मे अकरणिज्जं पावंति चरितमारूढो । १०९० । • (कृत्वा नमस्कारं, सिद्धभ्योऽभिग्रहं तु स गृह्णेत् । सर्व मे अकरणीयं पापमिति चारित्रमारूढः । ) 1 वे सिद्धों को नमस्कार कर यह प्रतिज्ञा करेंगे :- "मेरे लिये सब प्रकार के पाप अकरणीय हैं" ( अर्थात् मैं यावज्जीव अब किसी प्रकार का पाप नहीं करूँगा ) और इस प्रकार की प्रतिज्ञा द्वारा वे चारित्र (पंच महाव्रत ) ग्रहण करेंगे । १०६० तिहिं नाणेहिं समग्गा, तित्थयरा जाव होंति गिहवासे । पडिवण्णम्मि चरित्ते, चउनाणी जाव उमत्था । १०९१ । (त्रिभिर्ज्ञानैः समग्राः तीर्थंकराः यावत् भवन्ति गृहवासे । प्रतिपन्न चारित्रे, चतुर्ज्ञानी यावत् छद्मस्था ।)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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