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तित्थोगाली पइन्नय ]
[मूलफलकन्दनिर्मल, नानाविध इष्ट- गंधरस - भोगाः । व्यपगत रोगातकाः सुरूप- सुरदुन्दुभिस्तनिताः ।]
अनेक प्रकार की अभीष्ट सुगन्ध और रसों से युक्त निर्मल मूल, फल एवं कन्दों का उपभोग करने वाले, रोग एवं आतंक से रहित, परम सुन्दर, देवदुन्दुभी के निर्घोष के समान ( कर्णप्रिय ) स्वर वाले और–६७
सच्छंद वणविया (हा) री, ते पुरिसा ताय होंति महिलाउ । निच्चा उ य पुष्पफला, ते विय रुक्खा गुण सहीणा | ६८ | ( स्वच्छंदवनविहारिणः, ते पुरुषास्ताश्च भवन्ति महिलास्तु | नित्यास्तु च पुष्पफलाः, तेऽपि च वृक्षाः गुण-सहीना: 1)
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यथेच्छ वनविहारी - वे पुरुष और महिलावर्ग होते हैं । अक्षय्य पुष्पफलशाली वे कल्पवृक्ष भी अपने गुणों से क्रमशः हीन होते जाते हैं । ६८ ।
नाणा मणिरयणमया, तेसिं सयणासणाई रुक्खेसुं ।
नरनारीगणो मुइओ सुहं वसह तत्थ स सुबइ | ६९|
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( नाना मणिरत्नमयाः तेषां शयनासनानि वृक्षेषु ।
नरनारिगणः मुदितः, सुखं वसति तत्र स स्वपिति || )
उन लोगों के, कल्पवृक्षों में विविध मरिगयों एवं रत्नों से जटित शय्याएं एव आसन होते हैं, जिन पर वे सदा प्रमुदित रहने वाले नरनारी युगल सुखपूर्वक रहते एवं सोते बैठते हैं।६६
ओसप्पिणी इमीए, तइयाए समाए पच्छिमे भाए । पलिओ मट्ठभागे, सेसंमि उ कुलगरुप्पची | ७० | ( अवसर्पिण्यामस्यां तृतीयायाः समायाः पश्चिमे भागे । पल्योपमाष्टभागे, शेषे तु कुलकरोत्पत्तिः । । )
इस अवसर्पिणी काल के तृतीय आरक के अन्तिम भाग में एक पत्योपम का आठवां भाग अवशिष्ट रहने पर कुलकरों को उत्पत्ति होती है |७०1