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[ तित्थोगाली पइन्नय
(पद्मप्रभश्च भरते, वयधारिः (व्रतधारी) जिनश्चैरवतवर्षे । एक समयेन जाताः, दशाऽपि जिनाश्चित्रायोगे ।)
भरत क्षेत्र में तीर्थ कर पद्मप्रभ और ऐरवत क्षेत्र में वयधारी जिनेश्वर, इस प्रकार चन्द्र का चित्रा नक्षत्र के साथ योग होने पर दशों क्षोत्रों में छठे दशों तीर्थ कर एक काल अथवा एक हो समय में जन्मे ।३१७। भरहे य सुपासजिणो. एरवए सामचंद जिणचन्दो। एग समएणजाया, दसवि जिणिंदा भू (?) विसाहाये योगे ।३१८। (भरते च सुपार्श्वजिनः, ऐरवते सा(सो)मचन्द्र जिनचन्द्रः । एक समयेन जाताः, दशाऽपि जिनेन्द्राः विशाखायोगे ।)
भरत क्षेत्र में सुपार्श्वनाथ और ऐरवत क्षेत्र में तीर्थ कर सामचन्द्र ये दशों ही सातवें तीर्थकर दशों क्षेत्रों में चन्द्र का विशाखा नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में हुए ।३१८। चन्दप्पभो य भरहे, एरवए दीहासण जिणचंदो । एग समयेण जाया, दसविय अणुराह जोगम्मि ।३१९। (चन्द्रप्रभश्च भरते, ऐरवते दीर्घासनः जिनचन्द्रः । . एक समयेन जाताः दशाऽपि चानुराधायोगे ।) .
भरत क्षेत्र में आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ. और ऐरवत क्षेत्र में दीर्घसेन---इस प्रकार दशों ही क्षेत्रों में दशों ही पाठवें तीर्थकर चन्द्र का अनुराधा नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में उत्पन्न हुए ।३१६। (इस गाथा का क्रमांक मूल प्रति में ३१८ है। ३१६ वीं गाथा मूल में नहीं है।) सुविही य भरहवासे, एरवए चेव जिणवर सयाऊ । एगसमयम्मि जाया, दसवि जिणा मूल जोगम्मि ।३२१। (सुविधिश्च भारतवर्षे, ऐरवते चेव जिनवर शतायुः । एकसमये जाताः, दशाऽपि जिनाः मूलयोगे ।)
नौवें तीर्थ कर भरत क्षेत्र में सुविधिनाथ और ऐरवत क्षेत्र में शतायु ये दशों ही तीर्थ कर चन्द्रमा का मूल नक्षत्र के साथ योग होने