SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ । तित्थोगाली पइन्नय (अथ ते देवानां पतयः, नयनसहस्रः जिनवरान् तदा । नापि तृप्यन्ति ईक्षन्तः त्रिभुवनशोभाभ्यधिकशोमान् ) ___ौलोक्य की समस्त शोभाओं की अपेक्षा भी अत्यधिक उत्कृष्ट शोभाशाली उन तीर्थकरों को अपने अपने हजार नेत्रों से निरन्तर देखते हुए भी वे सब इन्द्र अपने आपको पूर्ण तृप्त अनुभव नहीं कर रहे हैं।२०५। तो पणपीउ जिणिंदे, इंदा परमेण भचिराएण । पगया घेत्तु ण जिणे, पंचप्पाणे विउव्वेति ।२०६। (ततः प्रणम्य जिनेन्द्रान् , इन्द्राः परमेण भक्तिरागेण । प्रगताः गृहित्वा जिनान् , पंच[धा]आत्मानं विकुर्वन्ति ।) तदनन्तर वे इन्द्र परम भक्तिराग से जिनेन्द्रों को प्रणाम करते हैं और जिनेन्द्रों को लेकर प्रस्थित होते हैं। प्रत्येक इन्द्र वैक्रिय शक्ति द्वारा अपने पांच पांच स्वरूप बनाता है ।२०६। गहिय जिणिंदो एक्को, दो दो पासेसु चामरे सच्छे । धवला य चत्त हत्थे, एक्केक्केत्थ वज्ज धरे ।२०७/ (गृहितजिनेन्द्र एकः, द्वौ द्वौ पार्श्वेषु चामराः स्वच्छाः । धवलाश्च चतुर्हस्तेषु एकैकेऽथ वज्रधराः ।) एक एक इन्द्र ने जिनेन्द्रों को अपने करपल्लवों में ग्रहण किया। प्रत्येक तीर्थ कर के दोनों पावों में दो दो इन्द्र चवर ठूलाते हुए चलने लगे। पार्श्वस्थ चारों इन्द्र चार हाथों में स्वच्छ सफेद चंवर और चार हाथों में वज्र ग्रहण किये हुए थे ।२०७।। चउविह देवसमग्गा, ते सक्का तिव्व जाय परितोसा । उप्पइऊणागासां, सुमेरु संपट्ठिया तुरिय ।२०८। (चतुर्विध देवसमग्राः, ते शका तीव्रजातपरितोषाः । उत्पत्याकाशं सुमेरु संपस्थिताः त्वरितम् ।) वे वैमानिक, ज्योतिष्क, भवनपति और वाणव्यन्तर-चारों प्रकार के समस्त देवसमूह एवं इन्द्र उत्कट आह्लाद का अनुभव करते
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy