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तित्थोगाली पइन्नय ]
[६३ हुए अाकाश में उड़े और मनोवेग से सुमेरु पर्वत की ओर अग्रसर हुए १२०८। तो बाल जिणवरिंदे, उवगायंता सुरा सपरिवारा । वच्चंति मुइय मणसा, पुरओ सन्याहिगारेण ।२०९।। (ततः बालजिनवरेन्द्रान् उपगायन्तः सुराः परिवाराः । वजन्ति मुदितमनसा, पुरतः सर्वाधिकारेण ।)
उन नवजात दशों तीर्थेश्वरों के प्रामे आगे सपरिवार सुविशाल सुरस मह अपनी समस्त दिव्य देवद्धि के ठाट के साथ तीर्थ करों की महिमा के गीत गाता हुमा मुदित मन हा आकाश मार्ग से चलने लगा ।२१६। पंचण्हं वि मेरूणं गिरिवरसिहरे खणेण संपत्ता । कंचण दमोववेए, सव्वेउय पुप्फ फल भरिए ।२१० (पंचानामपि मेरूणां गिरिवरशिखरे क्षणेन संप्रानाः । कंचन द्र मोपपेते, सर्वतुक पुष्पफलभरिते ।)
- जिनेन्द्रों को लिये हुए वे देव-देवेन्द्र सब ऋतुओं के पुष्प-फलों से लदे स्वर्णवृक्षों से सुशोभित पांचों ही सुमेरु पर्वतों के शिखरों पर क्षण भर में ही पहुँच गये ।२१०। . पंचण्हं वि मेरूणं एक्केक्कं होइ पंडुगवणं तु । लज्जइ तेलोक्कस्स वि, लच्छी संपिंडिया तेसु ।२११॥ (पंचानामपि मेरूणां, एकैकं भवति पाण्डुकवनं तु । लज्जति त्रैलोक्यस्यापि, लक्ष्मी संपिंडिता तेषु ।)
पांचों ही म मेरु पर्वतों में से प्रत्येक पर एक एक पाण्डकवन है, जिनकी शोभा श्री के समक्ष तीनों लोक की एकत्र पिण्डीभूत लक्ष्मी भी लज्जित हो जाती है ।२११। ताण बहुमज्झ देसे चूला जिणभवणसोहिया रम्मा । वेरूलिय विमलरूवा, पंचढग जोयणु विद्धा ।२१२।