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तित्थोगाली पइन्नय ]
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इस गणिपिटक (द्वादशांगी) को द्रव्य की दृष्टि से नित्य (अविनश्वर) और पर्याय की दृष्टि से अनित्य (नश्वर) समझना चाहिये क्योंकि स्याद्वाद में इसे नित्य एवं अनित्य-दोनों रूपों में माना गया है ।८७१। जो सियवायं भासति, पमाणनय पेसलं गुणाधारं । भावेइ मणेण सया, सो हु पमाणं पवयणस्स |८७२। (यः स्याद्वादं भाषति, प्रमाणनयपेशलं गुणाधारम् । भावयति मनसा सदा, स खलु प्रमाणं प्रवचनस्य ।) . जो पूष्ट प्रमाणों. नयों एवं गुणों के आधारभूत स्याद्वाद को बात कहता तथा उसका अन्तर्मन से सदा चिन्तन मनन करता है, वह वस्तुतः प्रवचन का प्रमाण अर्थात् प्रवचनानुसार प्रामाणिक है।८७२। जो सियवायं निंदति, पमाणनय पेसलं गुणाधारं । भावह दुढ भावा, न सो पमाणं पश्यणस्स |८७३। (यः स्याद्वादं निन्दति, प्रमाणनयपेशलं गुणाधारम् । भावयति दुष्ट भावान्. न स प्रमाणं प्रवचनस्य । . जो पुष्ट प्रमाण, नय एवं गुणों के आधारभूत स्याद्वाद को निन्दा करता और मन में भी इस प्रकार की दुष्ट भावना का चिन्तन मनन करता रहता है, वह प्रवचन का प्रमाण अर्थात् प्रवचनानुसार प्रामाणिक नहीं है ।८७३।
ओसप्पिणी इमीसे, चत्तारि अपच्छिमाइं इह भरहे । अत्थंमि दूसमाए. [अत्यं] संघस्स चउ पिहस्सावि ।८७४। (अवसर्पिण्यामस्यां, चत्वारि अपश्चिमानि इह भरते । अस्तमितायां दुष्षमायां, [अस्तं] संघस्य चतुर्विधस्यापि ।)
इस अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में दुःप्रसह प्राचार्य, फल्गुश्री साध्वी, नाइल श्रावक और सर्वश्री श्राविका--ये चार व्यक्ति