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________________ २६४ ] ( सामायिकमत्र प्रथमं छेदोपस्थापनं भवेत् द्वितीयम् । एतौ द्वावपि चारित्रौ, भविष्यतः यावत् तीर्थं तु । ) , प्रथम सामायिक चारित्र और दूसरा छेदोपस्थापनीय चारित्र - ये दोनों तीर्थ के अन्तिम दिन तक विद्यमान रहेंगे | ८६८ । जो भणति नत्थि धम्मो, न य सामाइयं न चैव य वयाईं । सो समणसंघ वज्जो, कायव्वो समण संघेण १८६९ । (यो भणति नास्ति धर्मः न च सामायिकं न चैव च व्रतानि । स श्रमण संघवज्यः कर्त्तव्यः श्रमणसंघेन ।) , [ तित्थोगाली पइन्नय , जो व्यक्ति (साधु) यह कहता है कि धर्म नहीं है, सामायिक नहीं है और व्रत भी नहीं हैं श्रमण मंधू को चाहिए कि ऐसे व्यक्ति को श्रमण संघ से निष्कासित कर दिया जाय । ८६ जड़ जिण मतं पवज्जह, ता मा ववहार दंसणं मुयह । ववहारस्स उछे, तित्थच्छेदो जओवस्सं ८७० । ( यदि जिन तं प्रव्रजथ, तर्हि मा व्यवहारदर्शनं मुञ्चथ । व्यवहारस्य तु छेदे, तीर्थच्छेदो यतोऽवश्यम् ।) यदि जनमत में दीक्षित होते हो अथवा जिनमत को अंगीकार करते हो तो व्यंवहार दर्शन का परित्याग मत करो। क्योंकि व्यवहार का विच्छेद होने पर तीर्थ का विच्छेद सुनिश्चित है ८७० | हमारा अनुमान है कि गाथा संख्या ८६ और ८७० पूर्वकाल में उत्पन्न हुए क्रिया सम्बन्धी मतभेद अथवा शिथिलाचार की ओर संकेत करती हैं ।] , इच्चेयं गणिपिडगं, निच्चं दव्वट्टयाए नायव्वं । पज्जाएण अणिच्चं निच्चानिच्चं सिय वादे । ८७१। (इत्येतद् गणिपिटकं नित्यं द्रव्यार्थतया ज्ञातव्यम् । , पर्यायेण अनित्यं नित्यानित्यं स्याद्वादे ।) 1
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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