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तित्थोगाली पइन्नय |
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अनेकों ऋद्धियों एवं लब्धियों के पात्रों, मति और श्र ुतज्ञान के द्वारा सर्वसारभूत ज्ञान को वहन करने वालों और मोक्षविज्ञान के अतुल भण्डार उत्तम बुद्धिनिधानों के परलोक चले जाने पर | ८६२। तेहिय समतीहिं, भरदेवासम्मिगय दोसेहिं । मव्वोधतो व्व वप्पो, जातो संभिण्णमज्जादो |८९३ । (तैश्च समतीत भारतेवर्षे गतदोष ।
अवध्वस्त प्रव (लोकः), जातः संभिन्नमर्याद: ।)
अर्थात् भरतक्षेत्र में इन दोष रहित महापुरुषों के अवसान के पश्चात् टूटे परकोटे वाले नगर के नागरिकों के समान लोग मर्यादाविहीन हो गये । ८३ ।
जह जह वच्चर कालो, तह तह कुलं सीलदाण परिहीणो । अहियं अहम्मसीलो, सच्चवयण दुल्लहो लोगो । ८९४ । ( यथा यथा व्यत्येति कालः, तथा तथा कुलशीलदानपरिहीनः । अधिकं अधर्मशीलः, सत्यवचन दुर्लभो लोकः । )
ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों लोग कुल, शील तथा दान से उत्तरोत्तर हीन और अधिकाधिक अधर्मशील होते चल े जाते हैं । सत्यवादी लोग दुर्लभ होते जाते हैं ८४
वरीय लोगधम्मे, परिहार्यंते पणट्टमज्जाए । सक्कार दाणगिदा, कुहम्म पासंडिणो जाता । ८९५ । ( नवरं च लोकधर्मे, परिहीयमाणे प्रणष्टमर्यादे | सत्कारदानगृद्धाः, कुधर्मपाषंडिनः जाताः । )
और इस प्रकार लोकधर्म के उत्तरोत्तर दूषित होने तथा मर्यादाओं के नष्ट हो जाने पर सत्कार लोलुप एवं दानगृद्ध पाखण्डियों का प्रादुर्भाव हुआ । ८६५।
होहिंति य पासंडा, मंतक्खर कुहग संपउताय ।
मंडल मुद्दाजोगा, वस उच्चारणपरा य दढं । ८९६ ।