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________________ तित्थोगाली पइन्नय | [ २७१ अनेकों ऋद्धियों एवं लब्धियों के पात्रों, मति और श्र ुतज्ञान के द्वारा सर्वसारभूत ज्ञान को वहन करने वालों और मोक्षविज्ञान के अतुल भण्डार उत्तम बुद्धिनिधानों के परलोक चले जाने पर | ८६२। तेहिय समतीहिं, भरदेवासम्मिगय दोसेहिं । मव्वोधतो व्व वप्पो, जातो संभिण्णमज्जादो |८९३ । (तैश्च समतीत भारतेवर्षे गतदोष । अवध्वस्त प्रव (लोकः), जातः संभिन्नमर्याद: ।) अर्थात् भरतक्षेत्र में इन दोष रहित महापुरुषों के अवसान के पश्चात् टूटे परकोटे वाले नगर के नागरिकों के समान लोग मर्यादाविहीन हो गये । ८३ । जह जह वच्चर कालो, तह तह कुलं सीलदाण परिहीणो । अहियं अहम्मसीलो, सच्चवयण दुल्लहो लोगो । ८९४ । ( यथा यथा व्यत्येति कालः, तथा तथा कुलशीलदानपरिहीनः । अधिकं अधर्मशीलः, सत्यवचन दुर्लभो लोकः । ) ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों लोग कुल, शील तथा दान से उत्तरोत्तर हीन और अधिकाधिक अधर्मशील होते चल े जाते हैं । सत्यवादी लोग दुर्लभ होते जाते हैं ८४ वरीय लोगधम्मे, परिहार्यंते पणट्टमज्जाए । सक्कार दाणगिदा, कुहम्म पासंडिणो जाता । ८९५ । ( नवरं च लोकधर्मे, परिहीयमाणे प्रणष्टमर्यादे | सत्कारदानगृद्धाः, कुधर्मपाषंडिनः जाताः । ) और इस प्रकार लोकधर्म के उत्तरोत्तर दूषित होने तथा मर्यादाओं के नष्ट हो जाने पर सत्कार लोलुप एवं दानगृद्ध पाखण्डियों का प्रादुर्भाव हुआ । ८६५। होहिंति य पासंडा, मंतक्खर कुहग संपउताय । मंडल मुद्दाजोगा, वस उच्चारणपरा य दढं । ८९६ ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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