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[ तित्थोगाली पइन्नय
(भविष्यन्ति च पाखण्डा, मंत्राक्षरकुहकसंप्रयुक्ताश्च । मण्डलं मुद्रायोगाः, वशोच्चाटनपराश्च दृढम् ।)
___ मन्त्र, यन्त्र, इन्द्रजाल आदि कौतूक विद्या एवं मण्डल मुद्रायोग आदि के द्वारा वशीकरण, उच्चाटन आदि हीन क्रियाओं में अहर्निश तत्पर रहने वाले पाखण्डियों का उस काल में बाहुल्य होगा ।८६६। तेहिं मुसिज्जमाणो, लोगो सच्छंद रइय कव्वेहिं । अवमन्निय सम्भावो, जातो अलितो य पलितो य ।८९७। (ते मुष्यमानः लोक स्वच्छन्दरचितकाव्यैः । अवमान्य सद्भावं', जातोऽलितश्च पलितश्च ।)
उन पाखण्डियों के द्वारा ठगे और लुटे जाते हुए उस समय के लोग स्वच्छन्दतापूर्वक रचित मनमाने काव्यों द्वारा वीतराग द्वारा उपदिष्ट आगमों की अवमानना करते हुए अलित-पलित हो जायेंगे ।८६७। होहिंति साहुणो वि य, सप्पक्खनिरवेक्खनिया धणियं । समणगुण मुक्क जोगा, केइ संसारछेत्तारो ।८९८। . (भविष्यन्ति साधवोऽपि च, स्वपक्षनिरपेक्षनिन्दका आधिक्येन । श्रमणगुणतुक्तयोगा, केचित् संमार-छेत्तारः ।)
__ साधू भी अधिकांशतः स्वपक्ष की अवहेलना करने वाले, बड़े निर्दय और श्रमण गुणों एवं योग से हीन होंगे। कोई विरले ही साधु संसार के बंधनों को काटने वाले होंगे ।८६८। होहीति मुरुकुलवासे, मंदा य मंदमतीय समण धम्ममि । एयं तं संपत्तं, बहुमुंडे अप्पसमणे य ८९९। (भविष्यन्ति गुरुकुलवासे, मन्दाश्च मन्दमतयश्च श्रमणधर्मे । एतत् तत् सम्प्राप्तं, बहुमुण्डा अल्पश्रमणाश्च ।) १ सद्भावं-गणिपिटकमित्यर्थ ।