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अवस्थाओं में कतिपय अहोरात्रों तक चिन्तन का विषय भी रह चुकी थीं । विद्यार्थी जीवन में कुछ प्रागमों का अध्ययन करते समय प्रन्तःस्थल में एक तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न हुई थी कि सौभाग्य से यदि कभी सुधवसर मिला तो नागमों का सुन्दर अनुवाद प्रोर विवेचन करूंगा । चालीस वर्षों के लम्बे व्यवधान पश्चात् उस उत्कण्ठा के अनुरूप अवसर मिला है तो इस अवसर को निराशा के घने कोहरे खो देना उचित नहीं इस विचार से मनोबल जागृत हुप्रा और इस कार्य को पूर्ण करने का दृढ़ संकल्प किया । उत्कट चिन्तन और अहर्निश प्रयास से उत्तरोत्तर सफलताएँ मिलती गईं, उत्साह बढ़ता गया । प्रन्ततोगत्वा ढाई मास के कठोर बौद्धिक परिश्रम से ग्रन्थ की मूल गाथानों, संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद का प्रालेखन पूरा हुम्रा । मेरे श्राराध्य गुरुदेव प्राचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब ने अपनी प्रत्यधिक व्यस्त दैनन्दिनो में से पर्याप्त समय निकाल कर इस ग्रन्थ के पाठों में अपेक्षित संशोधन किया। वास्तविकता तो यह है कि श्राचार्य श्रों की असीम अनुकम्पा से ही मैं इस कार्य को कर सका हूँ ।
इस ग्रन्थ की ८०० गाथानों की छाया धौर धनुवाद कर लेने के पश्चात् श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराज के प्राहोर भण्डार से इस ग्रन्थ की एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति भी मिल गई । जोधपुर में २५ ६-७५ को इस प्रति की फोटोस्टेट कापियाँ तैयार करवाई । यद्यपि यह प्रति भी प्रशुद्धियों से भरी थी पर दो प्रतियां हो जाने के कारण पाठों के मिलान श्रौर शुद्धीकरण में पर्याप्त सहायता मिली।
इस ग्रन्थ के संपादन के लिये इसकी अनेक प्रतियों की श्रावश्यकता के साथसाथ एतद्विषयक शोध के लिये गहन प्रध्ययन, विपुल ऐतिहासिक सामग्री, कठोर श्रम और पर्याप्त समय की आवश्यकता थी और है । क्योंकि इसकी अनेक गाथाएं अव्यवस्थित और प्रत्यधिक प्रशुद्ध होने के साथ साथ समवायांग श्रादि प्रागमों में और प्रन्यान्य ग्रन्थों में भी थोड़े परिवर्तित स्वरूप में उपलब्ध होती हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के मूल तथा टीकागत प्रनेक शब्द प्रौर वाक्यांश भी इसकी गाथानों में यथावत् स्वरूप में दृष्टिगोचर होते हैं। ये सब तथ्य इस ग्रन्थ के रचनाकार के समय आदि के सम्बन्ध में निर्णय करने के लिये बड़ े सहायक हो सकते हैं । इन सब गहराइयों में उतरने के लिये आवश्यक अध्ययन क्षमता, समय सामग्री प्रादि साधनों का मैं अपने भाप में प्रभाव अनुभव करता हूं ।