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________________ ३६२ ] [ तित्योगाली पइन्नय जह जह दोसोवरमो, जह जह विसयेसु होइ वेरगं । तह नायव्वं तं खलु, आसन्नं मे पदं परमं । १२०४ | ( यथा यथा दोषो परमः, यथा यथा विषयेषु भवति वैराग्यम् । तथा ज्ञातव्यं तत् खलु, आसन्नं मे पदं परमम् ।) ज्यों ज्यों दोषों में अनिच्छा अर्थात् दोषों से दूर रहने की वृत्ति होती है और ज्यों ज्यों विषय कषायों के प्रति वैराग्य भावना जागृत होती है त्यों त्यों समझना चाहिये कि परमपद मोक्ष मेरे निकट आ रहा है | १२०४ दुग्गमभवकंतारे, भ्रममाणेहिं सुइरं पण हिं । दल्लहो जिणोवदिट्ठो, सोग्गइ मग्गो इमो लद्धो । १२०५. ( दुर्गम भवकान्तारे, भ्रममानैः सुचिरात् प्रणष्टैः । दुर्लभः जिनोपदिष्टः, सुगति मार्ग अयं लब्धः ।) भव रूपी इस दुर्गम अटवी में भ्रमण करते करते चिरकाल से भटके - नष्ट हुए हमने, जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित सुगति का यह दुर्लभ मार्ग पाया है । १२०५ । इणमो मुगतिर पहो, सुदेसिओ उ जओ जिणवरेण । ते धन्ना जे एयं पहमणवज्जमोतिण्णा । १२०६ । 1 (एष मुक्तिगतिपथ:, सुदेशितस्तु यत् जिनवरेण । ते धन्याः- ये एतं पथ मनवद्यमवतीर्णाः । ) जो यह मोक्ष का मार्ग जिनवर ने उपदेश द्वारा दिखाया है, उस पर जो व्यक्ति अग्रसर हुए हैं, वे धन्य हैं । २०६ ॥ जाहे य पावियव्वं, इय परलोगे य होइ कल्लाणं । ताहे जिणवरभणियं, पडिवज्जह भावतो धम्मं । १२०७। ( यदा च प्राप्तव्यं. इह पर लोके च भवति कल्याणम् । तर्हि जिनवरभणितं प्रतिपयस्व भावतः धर्मम् ।)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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