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[ तित्योगाली पइन्नय
पद्यरचना द्वारा मैं चौवीस जिनेश्वरों के सम्बन्ध में कथन कर रहा हूँ । उनके अन्तिम देव भव का कथन समाप्त हुआ अब उनके सम्बन्ध में सुनिये | ३११०
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पंचसु एरव, पंच भरहेसु जिणवरिंदाणं । ओप्पणी इमीसे, दससु वि खेच सु समकालं | ३१२। (पंचसु ऐरवतेषु, पंचभरतेषु जिनवरेन्द्राणाम् । अवसर्पिण्यामस्यां दशष्वपि क्षेत्रेषु समकालम् ।)
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पांचों ऐरवत क्षेत्रों में और पांचों ही भरत क्षेत्रों अर्थात् ढाई द्वीप के इन दशों क्षेत्रों में, जहां कि अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी रूपी काल चक्र अनुक्रमशः अनवरत गति से अनादिकाल से चलता आया है, चल रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा, वहां इस अवसर्पिणी काल में तीर्थङ्करों की चौवीसी का पूर्णतः सम सामयिक अथवा समान काल रहा है । ३१२ ।
उसभी य भरहवासे, बालचंदाणणो एरवए उ ।
एग समएण जाया, दसवि जिणा विस्स देवो' हि । ३१३ | ( ऋषभश्च भारतवर्षे, बाल चन्द्रानन ऐरवते तु ।
एक समयेन जाताः, दशाऽपि जिनाः वैश्व देवो हि ।
भरत क्षेत्र में ऋषभ देव और ऐरवत क्षेत्र में बाल चन्द्रानन, तीर्थङ्कर एक ही समय में उत्पन्न क्षेत्रों में एक साथ प्रकट हुई ।
इस प्रकार दशों क्षेत्रों में दशों प्रथम हुए । इनके समय में अग्नि भी दशों | ३१३। ( इस गाथा में जन्म नक्षत्र का उल्लेख नहीं है ।)
१ पंचसु भरतक्षेत्रेषु तथैव पंचस्वैरवतक्षेत्रेषु प्रथम तीर्थंकराणां समये वैश्वा नरस्योत्पत्तिः संजाता । गाथायामत्र प्रयुक्तस्य विस्सद्दवो' - पदस्य संस्कृत स्वरूपं वैश्वदेवः भवति । श्रग्नेरुत्पत्तिमुद्दिश्यैवैतद् पदं ग्रन्थकर्ता प्रयुक्त स्यादिति प्रतीयते । इतरार्थोऽस्य पदस्य नास्भाभिरनुमीयते ।
२ ऐरवत क्षेत्रोत्पन्न प्रथम जिनस्य नाम चण्द्राननः । बाल शब्दोऽत्र चन्द्रस्य विशेषणार्थे छन्दोऽनुरोधादेव प्रयुक्त इतिसिद्धम् ।