SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ तित्थोगाली पइन्नय १६४ ] जाव य उसम जिणिंदो, जावेव य वद्धमाण जिणचंदो । अह सागरोत्रमाणं, कोडा कोडी भवे कालो | ५२३ | ( यावच्च वृषभजिनेन्द्र यावदेव च वर्द्धमान जिमचन्द्रः । अथ सागरोपमानां कोट्याकोटि : भवेत् कालः । ) बायालीस सहस्सेहिं ऊणि या वच्चराणा जाणाहि । ' एक्कं कोडा कोडि, उदहिसमाणाणमाणाणं [जुयलं] | ५२४| (द्विचत्वारिंशत्सहत्र: ऊनिनाः वत्सराणां जानीहि । एक कोट्याकोटिं उदधिसमानानां मानानाम् ।) जिस समय तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव विद्यमान थे उस समय से लेकर जब तक अन्तिम तीर्थ कर भगवान् महावोर विद्यमान थे उस समय तक अर्थात् भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण से भगवान् महावीर के निर्वाण तक (लगभग) एक कोटा कोटि सागरोपम काल होता है ( उस काल को ) । ५२३ । ४२,००० वर्ष कम एक कोटा कोटि सागरोपम जानिये | ५२४ | पुरिम चरिमेस असु, अबोच्छिष्णं जिणेसु तित्थंति' । मज्झिम सु य सत्तसु, वुच्छेओ एत्तियं कालं । ५२५ । (प्रथमचरमेषु अष्टसु, अविच्छिन्नं जिनेषु तीर्थम् । मध्यमेषु च सप्तसु व्युच्छेदः एतावद् कालम् ।) प्रथम आठ और अन्तिम आठ- इन सोलह अन्तरालों में तीर्थकरों के धर्म तीर्थ का कहीं विच्छेद नहीं हुआ, वह अबाध गति से निरन्तर चलता रहा । किन्तु मध्यमवर्ती आाठ तीर्थंकरों( सुविधिनाथ से शान्तिनाथ) के बोच के सात अन्तरालों में इतने ( निम्नलिखित ) काल तक तीर्थ की व्युच्छित्ति हुई : :—५२५॥ ---- १ अस्याः गाथायाः द्वितीय चरणे - श्रवोच्छिष्णं जिणंतरेसु तित्थ त्ति" - इति पाठेन भाव्यम् ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy