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[ तित्थोगालो पइन्नय
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नेगाई सहस्साईं, गामागरणगर पट्टणादीनं । वियड्ढदाहिणेणउ, पुव्वावर अंतरडिया । ५९६ । ( अनेकानि सहस्राणि ग्रामागारनगरपतनादीनाम् । वैताय दक्षिणेन तु पूर्वापरान्तरस्थिताः । )
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इनके अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत के दक्षिणी भाग में पूर्व तथा पश्चिम की तलहटियों में बसी दो विद्याधर श्रेणियों के अनेक सहस्र ग्राम- आगार नगर तथा पत्तन त्रिपृष्ठ वासुदेव एवं अचल बलदेव के आधिपत्य में थे || ५६६।।
दरियरिमाणमहणा, अवसेवसमाणइत्त नरवणो |
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दाहिण भरहं सगलं भुजंतिविलीण पडिवक्खा ५९७ । ( दृप्त ऋपुमान मथनाः अवशान् वशमानयित्वा नरपतयः । दक्षिण भरतं सकलं, भुञ्जन्ति विलीन प्रतिपक्षाः 1)
दन्मित्त (दृप्त) शत्रुओं के मान का मथन ( मर्दन) करने वाले त्रिपृष्ठ और अचल स्वतन्त्र राजा-महाराजाओं को अपने आज्ञानुवर्ती एवं अधीन बना कर शत्रुविहीन हो सम्पूर्ण दक्षिण भारत के निष्कण्टक राज्य का उपभोग करने लगे । ५६७ |
सोलस साहस्सी तो, नरवइतणयाण रूवकलियाणं । तावइओविय जणवय, कल्लाणीतो तिविटुस्स । ५९८ । ( षोडशसाहस्रीस्तु, नरपतितनयानां रूपकलितानाम् । तावत्योऽपि च जनपद - कल्याण्यस्तु त्रिपृष्ठस्य ।
राजाओं की अनुपम रूप लावण्यवती १६,००० कन्याएं और उतनी हो अर्थात् १६ हजार, विभिन्न जनपदों की रूप-गुण-यौवन संपन्ना सुन्दरियां । ५६८ ।
इय बत्तीस सहस्सा, चारुपत्तीण ता तिविट्ठुस्स ।
धारिणि पायोक्खाणय, अनुसहस्सा य अयलस्स | ५९९