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________________ २४२ ] तित्थोगाली पइन्नय (क्लेशान् परिचिन्तयन् राजकुलाच्च ये परिम्लेशाः । नरकेषु च ये क्लेशाः, तावत् लुञ्चति आत्मनः केशान् ) संसार के अनेक प्रकार के असह्य कष्ट्रों राजकुल से प्राप्त होने वाले विविध क्लेशों और नारकीय भीषण क्लेशों का चिन्तन करते करते स्थूलभंद्र ने अपने केशों का स्वयं ही लुञ्चन कर लिया १७६१। तंविय परिहिय वत्थं छेत्त णं कुणइ अग्गतो आरं । कंबलरयणो गुठि काउं, रण्णो ठियं पुरतो ।७९२। (तमपि च परिहितवस्त्रं, छित्वा करोति अग्रहारम् । .. कम्बलरत्ने ग्रन्थि कृत्वा, राज्ञः स्थितः पुरतः ) अपने पहने हुए वस्त्र को उतार तथा फाड़ कर उसका अग्रहार (कटि प्रदेश पर रखने का वस्त्र खण्ड) बना लिया। रत्न कम्बल में गांठे लगा (उसका ओघा बना) स्थूलभद्र (साधुवेष) में राजा नन्द के सम्मुख आ खड़ा हुआ ।७६२।। एयं मे सामत्थं, भणइ अवणेहि मत्थतो गुडिं। तो णं केसविहूणं, केसेहिं विणा पलोएति ।७९३।। एतत् मे सामर्थ्यम्, भणति अपनय मस्तकात् ग्रन्थिम् । ततः ननु केशविहीनं, क्लेशैविना प्रलोकयति ।) राजा नंद को सम्बोधित कर स्थूलभद्र ने कहा- "मेरा यह सामर्थ्य है। मेरे सिर के भार को दूर कीजिये ।" केश-विहीन (मण्डित) स्थूलभद्र को सब प्रकार के क्लेशों से रहित अर्थात् प्रसन्न देख कर राजा नन्द विस्मित हो उनकी ओर देखता ही रह गया ।७६३। अह भणइ नंद राया, लाभेति धीर नत्थि रोहियणं [रोहणयं] । बादं चि भणिऊणं, अह सो संपत्थितो तत्तो ७९४। . (अथ भणति नन्दराजा, 'लाभ' इति धीर नास्ति रोधनकम् । बाढम् ! इति भणित्वा, अथ स संप्रस्थितस्ततः ।)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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