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तित्योगाली पइन्नय )
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कंबल रयणेय तओ, अप्पाणं सुट्ठ संवरिचा गं । अंसूणि निण्हयंतो, असोग वणियं अह पविट्ठो ७८८। (कम्बल रत्नेन तत, आत्मानं सुष्टु संवरित्वा ननु । . अश्र णि निस्सारयन्. अशोकवनिकां अथ प्रविष्टः ।)
___ कम्बल रत्न (रत्नकम्बल) से अपने शरीर को अच्छी तरह संवरित (ढक) कर आंसू बहाता हुआ स्थूलभद्र राजभवन की अशोकवाटिका में प्रविष्ट हुा ।७८८। जेत्तियमेत्तं दिण्णं, तेतियमेवं इममि भुत्त त्ति । एचो नवरि पडामो, असोब मीणाउल घरम्मि ७८९। (यावन्मानं दत्तं' तावन्मात्रं अस्मिन् भुक्तमिति । इतः नवरं पतामः, झष इव मीनाकुलगृहे ।)
अशोकवाटिका में बैठ कर स्थूलभद्र चिन्तन करने लगा"पूर्व भव में जितना दिया उतना इस भव में उपभोग किया । अब आगे मगरमच्छों से संकुल समुद्र में मछली के गिरने के समान मुझे दुःखाकुल संसार सागर में नहीं गिरना चाहिए ।७८६। आणा रज्जं भोगा, रण्णो पासंमि आसणं पढमं । सुब्भत्थ इमं न खमं, खमं तु अप्पखमं काउं ।७९०। (आज्ञा राज्यं भोगाः, राज्ञः पार्वे आसनं प्रथमम् । शुभार्थं इदं न क्षम, क्षमं तु आत्मक्षमं कत्तुम् ।)
अनुलंघ्य आज्ञा, राज्य, भोग और राजा के पास ही उच्च प्रथम प्रासनं-ये सब शुभ अर्थात् आत्मकल्याण करने में समर्थ नहीं। वस्तुतः अपने आपको आत्मजयी बनाना ही शुभ प्राप्ति का समर्थ साधन है ।७६०।। केसे परिचिंतंतो, रायकुलाओ य जे परिकिलेसे । निरयेसु य जे केसे, तालुचति अप्पणो केसे ।७९१। १ पूर्व भवे इति शेषः । २ 'भवे' इत्यध्याहारेण वाच्यम् । ३ इतः परमित्यर्थः ।