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(अथ भणति नंदराजा, मंत्रिपदं गृहाण स्थूलभद्र ! मम । प्रतिपद्यस्व त्रिषष्टिः त्रीणि नगराकरशतानि )
तित्योगाली पइन्नय ]
नन्दराज ने इसे सम्बोधित करते हुए कहा - ': स्थूलभद्र ! मेरे महामात्य पद को ग्रहण कर त्रेसठ (६३) सौ नगरों और तीन सौ कोशागारों की व्यवस्था का भार अपने हाथों में लो । ७८४१.
रायकुल सरिसभूए, सगडाल कुलम्मि तंसि संभूओ । सत्थेसु य निम्मा [हा] तो, गिण्हसु पिउसंतियं एयं । ७८५ । (राजकुल सदृशभूते, शकटालकुले त्वमसि सम्भूतः । शास्त्रेषु च निर्मातः [निष्णातः] गृहाण पितृ सत्कर्म तद् ।
राजकुल के समान प्रतिष्ठित शकडाल कुल में तुम उत्पन्न हुए हो। तुम शास्त्रों में भी निष्णात हो । अपने इस पैत्रिक पद को ग्रहरण करो" ७८५।
अह भणइ धूल मद्दो, गणिया परिमलसमप्पिय सरीरो । सामी सामत्थो, पुणो अभे विष्णविसामि । ७८६ | ( अथ भणति स्थूलभद्रः, गणिका परिमल समर्पित-शरीरः । स्वामिन् कृतसामर्थ्यः पुनश्च त्वयि विज्ञपयिष्यामि ।)
कोशा गरिणका द्वारा लगाये गये अगराम से सुशोभित एवं सुगन्धित शरीर वाले स्थूलभद्र ने नन्दराज को उत्तर में कहा
स्वामिन् ! अपने सामर्थ्य के सम्बन्ध में मैं विचार कर पुनः आपकी सेवा में निवेदन करूंगा ।७८६ ।
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अह भणति नंद राया, केण समं दाई तुज्झ सामत्थं ।
को अण्णो वरतरओ, निहूणातो सव्वसत्सु । ७८७ | ( अथ भणति नन्द राजा. केन समं इदानीं तव सामर्थ्यम् । कोऽन्यो वरतरकः, निष्णातः सर्वशास्त्रेषु । )
इस पर राजा नन्द ने कहा - "इस समय तुम्हारे सामर्थ्य की तुलना करने वाला कौन है ? सब शास्त्रों में निष्णात तुम से श्रेष्ठ दूसरा और कौन है ?" | ७८७ |