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तित्थोगाली पइन्नय ]
सेसं तु बीयगेत, हो हो सव्वेसु जीव जातीसु । कुणिमाहारा सव्वे, नीसाए संझ कालस्स ९५८। ( शेषं तु बीजमात्रं भविष्यति सर्वेषु जीव जातीषु कुणिमाहाराः सर्वे निशायाः संधिकालयोः । )
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उस समय सब जीवों की जातियों का बीजमात्र अवशिष्ट रहेगा । वे सब प्राणी रात्रि के दोनों संध्याकाल में मत्स्य मकरादि के मांस का आहार करेंगे । ६५८ ।
रह पह मेतं तु जलं, हो ही बहु मच्छ कच्छ वाइण्णं । तम्मि समए नदीणं, गंगादीणं दसहं वि । ९५९ । (रथपथमात्रं तु जंलं. भविष्यति बहुमत्स्य कच्छपाकीर्णम् । तस्मिन् समये नदीनां गंगादीनां दशानामपि ।)
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उस समय दशों क्षेत्रों की गंगा श्रादि नदियों में रथ-पथ के बराबर भाग में जल होगा, जो मछलियों, कछुओं आदि से संकुल रहेगा |५|
अह मासूर भीरू, निसाचरा बिल गया य दिवसम्म | गंगा सिन्धु नदीणं, काहिंति ततो थले मच्छा ९६० । ( अथ मायाशूराः भीरवः, निशाचराः बिलगताश्च दिवसे । गंगा सिन्धु नद्योः करिष्यन्ति ततः स्थले गत्स्यान् ।
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वे कपट-शूर डरपोक, निशाचर मनुष्य दिन भर बिलों में दबे पड़ रहेंगे। वे दिन और रात के दोनों संधियों की वेला में बिलों से निकल कर मत्स्यों और कछुओं आदि जलजन्तुयों को गंगा-सिन्धु नदियों के तटों पर धूलि पें दबा देंगे । ९६० ।
गंगा सिन्धू य नदी, वेयड्ढ गिरि य भरह वासम्मि ।
या नवरि तिन्निवि, होहिंति न होहिति सेसाई । ९६१ । (गंगा सिन्धु च नयौ, वैताढ्य गिरिश्च भरतवर्षे ।
एतानि नवरं त्रीण्यपि भविष्यन्ति न भविष्यन्ति शेषाणि । )
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