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________________ २७६ ] [ तित्थोगाली पइन्नय (शिष्या अपि न पूजयन्ति, आचार्यान् दुषमानुभावेन । आचार्या सुमनसा, न ददति उपदेशरत्नानि ।) दुःषम काल के प्रभाववशात् शिष्य अपने प्राचार्यों की सत्कारसम्मान आदि से पूजा नहीं करेंगे और आचार्य भी अन्तर्मन से उन्हें उपदेश नहीं देंगे।१०। समणाणं गोयर तो, नासिहिति दुःसमप्पभावणं । । सावगधम्मो वि तहा, अज्जाणं पण्णवी सावि [१] ।९११। (श्रमणानां गोचरं ततः, नाशयिष्यति दुःषमाप्रभावेन । श्रावक धर्मोऽपि तथा, आर्यिकाणां प्रज्ञप्ति सापि ।) दुःषम आरक के प्रभाव से आगे चल कर श्रमणों की मधुकरी, श्रावक धर्म और साध्वियों का प्राचार भी धीरे-धीरे नाश को प्राप्त होगा।६११। देवा न देति दरिसणं, धम्मे य मती जणस्स पम्हट्ठा । सत्ताकुला य पुहवी, बहुअंकिण्णा य पासंडा ।९१२। (देवा न ददति दर्शनं, धर्मे च मतिः जनस्य प्रमुष्टा । . सत्वाकुला च पृथ्वी, बहुकं कीर्णाश्च पाषण्डाः ।) . देवता मनुष्यों को दर्शन नहीं देंगे। मानव समाज की धर्म बुद्धि नष्ट हो जायेगी। अपना-अपना प्रभुत्व जमाने की मानव-मानव में होड के कारण पृथ्वी सत्ताकुल हो जायेगी और अधिकांशतः सर्वत्र पाखण्डियों का प्रसार होगा।६१२। सयणे निच्च विरुद्धो, निसोहिय साहिवासमित्तेहिं । चण्डो दुराणुयत्तो, लज्जारहितो जणो जातो ।९१३। (स्वजनेनित्यविरुद्धः, निशोधित साधिवास मित्रैः । चण्डः दुरानुवृत्तो, लज्जारहितः जनो जातः ।) ___ उस समय में लोग सदा साथ रहने वाले मित्रों एवं स्वजनों के साथ विरोध रखने वाले, बड़े क्रोधी दुष्टतापूर्ण कार्यों में प्रवृत्त और लज्जारहित होंगे।६१३।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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