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तित्थोगाली पइन्नय ]
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दुःषम सुषमा नामक आरक बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोटाकोटि सागरोपम का होता है । २१ ।
अह दुसमाए कालो, वाससह स्साई एकवीसं संतु । तावइओ चैव भवे, कालो अदूममा बि | २२ | ( अथ दुःषमायां कालः, वर्षसहस्त्राणि एकविंशति तु । तावान् चैव भवेत्, कालः अति दुःषमाया अपि । )
दुःषमा नामक धारक इकवीस हजार वर्ष का और अति दुःषमा (दुःषमदुःषमा) नामक आरक भी उतने ही अर्थात् इकवीस हजार वर्ष का होता है । २२ ।
नवसागरोवमाण, कोडाकोडीओ होंति दुगुणाओ । जा होइ अम्मभूमी भरहेरवसु वासेसु | २३ | ( नव सागरोपमानां, कोटिकोट्यः भवन्ति द्विगुणिताः । या भवति अकर्मभूमिः, भरतैरवतेषु वर्षेषु ।)
भरत और ऐरवत क्षेत्रों में है कोटाकोटि सागरोपम काल अवसर्पिणी का और कोटाकोटि सागरोपम काल ही उत्सर्पिणी का - इस प्रकार दोनों के काल को जोड़ने पर १८ कोटाकोटि सागरोपम काल तक भरत और ऐरवत क्षेत्रों में अकर्म भूमि (भोग भूमि) रहती है | २३ |
स्पष्टीकरण - ऐसा प्रतीत होता है कि तेवीसवीं गाथा में मोटे रूप से अकर्म भूमि का काल बताया गया है । वस्तुतः अवसर्पिणी काल के सुषमदुःषमा नामक तृतीय आरक की समाप्ति के ६४ लाख पूर्व शेष रहने पर भरत तथा ऐरवत क्षेत्रों में कर्मभूमि का प्रादुर्भाव तथा उत्सर्पिणी काल के सुषमदुःषमा नामक चतुर्थ आरक के प्रारम्भ में ६४ लाख पूर्व व्यतीत हो जाने पर ५ भरत और ५ ही ऐरवत - इन १० क्षेत्रों में कर्मभूमि का अवसान हो जाता है । इस प्रकार १८ कोटाकोटि सागरोपम के अवसर्पिणी के प्रथम तीन और उत्सर्पिरगी के अंतिम इन छह आरकों में १ करोड २८ लाख पूर्व तक कर्मभूमि काल रहता है । अर्थात् एक करोड़ २८ लाख पूर्व, तीन वर्ष, ८ मास और