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तित्थोगाली पइन्नय ]
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(उग्राणां भोगानां, राजन्यानाञ्च क्षत्रियाणाञ्च । चतुर्भिस्सहस्रः ऋषभः, शेषास्तु सहस्र परिवाराः ।)
भगवान् ऋषभदेव उग्र (आरक्षक स्थानीय), भोग (गुरु प्राय अर्थात् संसार पक्ष में आयु आदि की दृष्टि से बड़े होने के कारण समादर के पात्र), राजन्य (वयस्य मित्रजन), और क्षत्रिय (सामन्त आदि) इन चार वर्गों के चार हजार पुरुषों के साथ और शेष तीर्थ कर एक एक सहस्र पुरुषों के साथ प्रवजित हुए ।३६३। उदिय उदिय कुलवंसा, सव्वेवि य जिणवरा चउव्वीसं । धणकणगरयण निचए अवउज्जिय तेउ पव्वइया ।३९४। (उदितोदित कुलवंशाः सर्वेऽपि च जिनवराश्चतुर्विशतिः । धनकनकरत्ननिचयान् अपोह्य ते तु प्रबजिताः ।)
. उत्कृष्ट कुल और उत्कृष्ट वंश में उत्पन्न हुए सभी, चौबीसों तीर्थ कर धन-धान्य-स्वर्ण और रत्नों को अति विशाल राशियों का परित्याग कर प्रबजित हुए।३६४।। समणगण पवर गुरुणो, भवियजण विवोहगा जिणवरिंदा । पंचमहव्वय जुत्ता, तवचरणुवएसगा धीरा ।३९५ (श्रमणगणप्रवरगुरवः, भविकजन विबोधकाः जिनवरेन्द्राः । पंच महाव्रत युक्तास्तपचरणोपदेशकाः धीराः ।)
सभी तीर्थंकर श्रमणगणों के सर्वोत्कृष्ट महान अधिनायक, जगद्गुरु, भव्य जनों को प्रबुद्ध करने वाले, पांच महाब्रतों के धारक, तपश्चरण के उपदेशक और महाधीर थे।३६५। सीहत्ता निक्खता, सीहत्ता चेव विहरिया धीरा । सीहेहिं सीहसरिसेहि, सीह ललित विक्कम पत्ता ।३९६। (सिंहतया निष्क्रान्ता, सिंहतया चैत्र विचरिताधीराः । शिष्यैः सिंहसदृशैः, सिंहललितविक्रमं प्राप्ताः ।)
उन सब तीर्थंकरों ने सिंह के समान अभिनिष्क्रमण किया उन धीर वीरों ने सिंह की भांति निर्भय हो विचरण किया और सिंहों के