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________________ [प्रा] कारण नहीं करा दिया गया पर जब कारणों की तह में गये सहज ही कारण समझ में प्रा गया। वास्तविकता यह है कि इस ग्रन्थ की प्रतियां बड़ी दुर्लभ हैं और जो हैं भी वे इतनी अशुद्ध पोर प्रस्पष्ट हैं कि उसका हिन्दी अनुवाद करना तो दूर, शुद्ध स्वरूप में लिखना भी बड़ा जटिल भौर दुस्साध्य कार्य है। __ जैन इतिहास और जैनागमों के उद्भट विद्वान् पंन्यास कल्याण विजयजी महाराज साहब ने बहुत वर्षों पहले अपने भण्डार के लिए इस ग्रन्थ की एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति से लिखित प्रति अपने गुरुदेव से प्राप्त को . पौर उसमें संशोधन करने का तथा उसे प्रकाशित करवाने का प्रयास किया । अन्यान्य प्रत्यावश्यक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण वे उस कार्य को सम्पन्न न कर सके पोर इस प्रकार इस ग्रन्थ का प्रकाशन स्थगित ही रहा। इसी वर्ष जैन मागम-साहित्य तथा प्राकृत एवं संस्कृत आदि भारतीय प्राच्य भाषामों के विद्वान् ठाकुर गजसिंहजी राठौड़ का जैन इतिहास विषयक खोज हेतु पंन्यासप्रवर श्री कल्याणविजयजी महाराज साहब की सेवा में जालोर पाना हुप्रा । श्री केसरविजय जैन ग्रन्थागार की हस्तलिखित ऐतिहासिक प्रतियों का अवगाहन करते समय ठाकुर साहब की शोधप्रधान दृष्टि तित्थोगाली पइन्नय की उक्त हस्तलिखित प्रति पर पड़ी और उन्होंने पं० कल्याणविजयजी महाराज के निर्देश एवं मार्ग दर्शन में इस ग्रन्थ का विशुद्ध रूप में पुनलेखन, संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद करन। मई, १९७५ में प्रारम्भ किया। इस ग्रंथ की अन्य प्रतियों के अभाव में पं० श्री कल्याणविजयजी मोर ठाकुर साहब को इस ग्रंथ के प्रशुद्ध पाठों को शुद्ध करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। ठाकुर साहब की प्रार्थना पर स्थानकवासी परम्परा के प्राचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब ने ठाकुर साहब द्वारा लिखित इस ग्रन्थ को प्रतिलिपि का अवलोकन कर स्थान-स्थान पर विवादास्पद एवं प्रशुद्ध पाठों को शुद्ध किया। पंन्यासप्रवर श्री कल्याण विजयजी महाराज साहब, प्राचार्य श्री हस्ती मलजी महाराज साहब और ठा० श्री गजसिंह जी राठौड़ द्वारा इस ग्रन्थ को विद्वद्भोग्य बनाने में जो परिश्रम किया गया है, उसके लिये हम इनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं । इस ग्रन्थ के प्रकाशन, साज-सज्जा मादि में श्री कान्तीलालजी चौथमलजी, जालोर ने बड़ी ही रुचि के साथ परिश्रम किया। प्रतः हम श्री कान्तिलालजी के प्रति भी अपना हार्दिक पाभार प्रकट करते हैं ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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